Diwali 2024 : नज़ीर अकबराबादी से लेकर अज्ञेय और अटल बिहारी वाजपेयी तक, दिवाली पर पढ़िए इन मशहूर रचनाकारों की नज़्म और कविताएं

कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है और यही वजह है कि चाहे कोई दौर हो, कोई मौका..कविताओं-शायरी में इसकी झलक मिलती है। फिर भला दीपावली जैसा बड़े और समृद्ध पर्व इससे कैसे अछूता रह सकता है। दिवाली पर कई महान कवियों और शायरों ने बेहतरीन कविताएँ, नज़्मे, ग़ज़ल, शेर लिखे हैं। ये हमारे देश की सांस्कृतिक एकता और सौहार्द्र की भी बानगी है।

Nazm Poetry

Diwali 2024 : दिवाली का पर्व भारतीय संस्कृति का ऐसा उत्सव है जिसे सभी धर्मों के लोग मिल जुलकर मनाते हैं। भले ही ये हिंदू धर्म का त्योहार हो लेकिन हमारी संस्कृति हमेशा से मेलजोल और एकता की रही है। ये बात न सिर्फ हमारे व्यवहार में, बल्कि कविताओं- गीत-गज़लों में भी नज़र आती है। ऐसे ही, दिवाली विषय पर कई बड़े शायरों और कवियों ने बेहतरीन नज़्में और कविताएं लिखी हैं।

कई प्रसिद्ध शायरों और कवियों ने दीपावली के महत्व को नज़्मों और कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है। अज्ञेय जैसे विद्व साहित्यकार से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी ने दीपावली पर कविताएं रची हैं। उर्दू में कैफ़ी आज़मी सहित कई बड़े शायरों ने बेहतरीन नज़्में लिखी हैं। नज़ीर अकबराबादी ने तो अपनी रचनाओं में होली और दीवाली को विशेष स्थान दिया है। 

दिवाली पर लिखी गई कुछ मशहूर नज़्म-कविताएँ

इतिहास में ऐसे कई शायर और कवि हुए हैं जिन्होंने दीपावली को सिर्फ़ किसी एक धर्म का पर्व न मानकर, इसे अंधकार को मिटाने और समाज को जोड़ने का माध्यम समझा। उनकी रचनाएं यह दर्शाती हैं कि दीपावली किसी विशेष धर्म का पर्व नहीं है बल्कि इसका महत्व हर व्यक्ति के लिए है। नज़ीर अकबराबादी से लेकर कैफी आज़मी और अज्ञेय से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक, सभी ने दीपावली के महत्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया है। यह पर्व केवल दीपों का नहीं बल्कि लोगों के दिलों में प्रेम और आपसी सौहार्द का उजाला फैलाने का माध्यम भी है। आज हम आपके लिए ऐसी ही कुछ नज़्में और कविताएं लेकर आए हैं।

दिवाली

हर इक मकाँ में जला फिर दिया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली कार
सभी के दिल में समाँ भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का
जहाँ में यारो अजब तरह का है ये त्यौहार
किसी ने नक़्द लिया और कोई करे है उधार
खिलौने खेलों बताशों का गर्म है बाज़ार
हर इक दुकाँ में चराग़ों की हो रही है बहार
सभों को फ़िक्र है अब जा-ब-जा दिवाली का
मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई
बताशे ले कोई बर्फ़ी किसी ने तुलवाई
खिलौने वालों की उन से ज़ियादा बन आई
गोया उन्हों के वाँ राज आ गया दिवाली का

“नज़ीर अकबराबादी”

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चराग़ाँ

एक दो ही नहीं छब्बीस दिए
एक इक कर के जलाए मैं ने

एक दिया नाम का आज़ादी के
उस ने जलते हुए होंटों से कहा
चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो
हाथ फैलाने की आज़ादी है

इक दिया नाम का ख़ुश-हाली के
उस के जलते ही ये मालूम हुआ
कितनी बद-हाली है
पेट ख़ाली है मिरा जेब मिरी ख़ाली है

इक दिया नाम का यक-जेहती के
रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची
क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा
माँ के आँचल में हैं जितने पैवंद
सब को इक साथ उधड़ते देखा
दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
तेल महँगा भी है मिलता भी नहीं
क्यूँ दिए इतने जला रक्खे हैं
अपने घर में न झरोका न मुंडेर
ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं
आया ग़ुस्से का इक ऐसा झोंका
बुझ गए सारे दिए
हाँ मगर एक दिया नाम है जिस का उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है

“कैफ़ी आज़मी”

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आओ फिर से दिया जलाएँ

भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाईं से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ

आहुति बाक़ी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ

“अटल बिहारी वाजपेयी”

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यह दीप अकेला

है दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है—गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा?
पनडुब्बा—ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?

यह समिधा—ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय—यह मेरा—यह मैं स्वयं विसर्जित—
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।

यह मधु है—स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस—जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर—फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुत : इसको भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़ुवे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो—
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।

“अज्ञेय”


About Author
श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।

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