सिर्फ 90’s किड समझ सकते हैं इन चीजों को, बचपन की कुछ यादगार बातें

भोपाल, डेस्क रिपोर्ट। पिछले 20 साल में तकनीक ने दुनिया को पूरी तरह बदल दिया है। और पिछले 10 सालों में तो ऐसा चमत्कारिक परिवर्तन हुआ है जिसने हम सबकी लाइफस्टाइल ही बदलकर रख दी। अगर हम आज के युवाओं या बच्चों को बीस साल पहले के जीवन के बारे में बताएं, तो वो शायद यकीन भी नहीं करेंगे। कुछ ऐसी बातें हैं जो 90’s के  किड यानी 90वें दशक के बच्चे ही समझ पाएंगे। आज हम फिर एक बार पलटकर देखते हैं और याद करते हैं कि नब्बे के दशक का बचपन कैसा होता था।

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  • उस समय की वो खास पेंसिल पीछे रबड़ लगा होता था। अक्सर बच्चे स्कूल में उस रबड़ को चबा जाते थे।
  • उस समय सबसे ज्यादा क्रेज़ था लाइट वाले शूज़ का। बच्चे अपने बर्थडे पर मम्मी पापा से लाइट वाले जूतों की ही सबसे ज्यादा डिमांड करते थे।
  • कैसेट में गाने भरवाना तबका प्रिय शगल था। रफ कॉपी पर गानों की लिस्ट बनाना और फिर उसे कैसेज में भराना। कैसेट फंस जाने पर पेन या पेंसिल से उसे ठीक करना।
  • टीवी पर सिग्नल ठीक करने के लिए छत पर जाकर एंटिना घुमाना। ये नजारा हर घर में दिख जाता था।
  • किराए पर साइकिल लेकर चलाना। उस समय किराए पर साइकिलें मिला करती थी और कई लोगों ने ऐसे ही साइकिल चलाना सीखा है।
  • हरमाल की दुकान से रंग बिरंगे चश्मे खरीदना और उन्हें पहनकर खुद को हीरो समझना।
  • ग्रीटिंग कार्ड्स भेजना। दीवाली, दशहरे या अन्य त्योहारों पर दर्जनों के हिसाब से ग्रीटिंग कार्ड्स लाए जाते थे और रिश्तेदारों दोस्तों को भेजे जाते थे। जन्मदिन पर भी बाकी तोहफों के साथ ग्रीटिंग कार्ड जरुर होता था।
  • वो पेन फ्रेंड बनाने का समय था। दोस्तों को लंबी लंबी चिट्ठिया लिखी जाती थी।
  • वो काला वाला टेलीफोन जिसमें डायन करने के लिए नंबर घुमाने पड़ते थे। बाद में कुछ नए तरीके के फोन भी आ जुड़े। तब टेलीफोन की घंटी बड़ी मीठी लगती थी।
  • ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर कलर्ड शीट लगाना। शटर वाली टीवी आती थी जिसके ऊपर पहले अलग से एक ब्लू स्क्रीन लगाई जाती थी। बाद में कलर्ड स्क्रीन भी आने लगी, जिसे लगाने के बाद कलर टीवी वाला फील आता था।
  • नंदन, चंपक, पराग, बाल भारती, चकमक सहित चाचा चौधरी, मोटू पतलू, नागराज, इंद्रजाल जैसी किताबें और कॉमिक्स खरीदना। ये घरों में हर महीने पेपरवाला देकर जाता था। गर्मियों में लायब्रेरी से इन्हें इश्यू भी कराया जाता था।
  • दीवाली वाली बंदूक, जिसमें टिकली या फिर टिकली वाली रस्सी डालकर चिटपिट करते रहते थे।
  • पेप्सी..ये कोल्डड्रिंक वाली पेस्सी नहीं थी बल्कि लंबाई वाले एक पॉलीबैग में फ्लेवर्ड पानी को जमा दिया जाता था। बच्चे इसे बड़े शौक से खाते थे।
  • उस समय वीडियो गेम खेलने के लिए बाकायदा शॉप्स होती थी। घंटे के हिसाब से पैसे देकर वीडियो गेम खेले जाते थे।
  • किराए पर वीसीआर या वीसीपी लाकर फिल्में देखना। उस समय कलर टीवी भी किराए पर मिलता था।

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श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।