अपने साहस से झांसी की रानी ने छुड़ा दिए थे अंग्रेजों के छक्के, जानें कैसे मनु से बनी वीरांगना लक्ष्मीबाई

Diksha Bhanupriy
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Rani Lakshmibai Jayanti: बुंदेले हरबोलो के मुंह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.. यह हर व्यक्ति के अंदर देशभक्ति का जज्बा भरने वाली वो पंक्तियां है, जिन्हें हम सभी बचपन से सुनते आए हैं। यह पंक्ति उस वीरांगना से जुड़ी हुई है जिसने भारत की भूमि से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए युद्ध लड़ा और उन्हें खूब छकाया। जब तक वह जिंदा रही उन्होंने अंग्रेजों को अपने गढ़ पर आंख उठाकर नहीं देखने दिया।

19 नवंबर 1834 यह वही दिन था जब बनारस के एक मराठी परिवार में रानी लक्ष्मी बाई का जन्म हुआ। उनके माता-पिता ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा था और प्यार से उन्हें मनु बुलाया जाता था। यही प्यारी सी मनु आगे चलकर रानी लक्ष्मी बाई के नाम से प्रसिद्ध हुई।

शादी के बाद बनी लक्ष्मी बाई

मराठी परिवार में जन्मी मनु की 1842 में झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवलेकर से शादी कर दी गई। मनु बचपन से ही काफी तेज तर्रार और साहसी स्वभाव की थी। अपने व्यक्तित्व से उन्होंने सभी को हैरान कर रखा था और ससुराल जाने के बाद उन्हें रानी लक्ष्मीबाई नाम दिया गया।

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पति और बेटे को खोकर संभाला साम्राज्य

रानी लक्ष्मी बाई की शादी के बाद सब कुछ ठीक चल रहा था और हर तरफ खुशियां छाई हुई थी। कुछ समय बाद उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था और उनके पुत्र की 4 महीने में ही मृत्यु हो गई। इसके बाद जैसे लक्ष्मी बाई के दिन बदल गए और शादी के बाद महाराज का भी निधन हो गया। बेटे और फिर पति को खोने के बाद रानी लक्ष्मीबाई बिखर तो गई थी, लेकिन उन्होंने यह ठान लिया था कि अब साम्राज्य और यहां के लोगों की रक्षा करने का दायित्व उन्हें निभाना होगा।

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अंग्रेजों को चटाई धूल

जैसे ही महाराज की मृत्यु की खबर सभी जगह फैली तो माहौल बदलता हुआ दिखाई देने लगा। उस समय ब्रिटिश इंडिया कंपनी के वायसराय डलहौजी को यह लगा कि यह झांसी पर कब्जा करने का सबसे बेहतरीन समय है क्योंकि फिलहाल वहां अंग्रेजों से लड़ने वाला और लोगों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। इसके बाद अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई से बातचीत का दौर शुरू किया और धीरे-धीरे उन पर दबाव बनाए जाने लगा। रानी समझ चुकी थी कि इस समय अंग्रेजी हुकूमत की नजर झांसी पर है और वह यहां पर कब्जा करना चाहते हैं। ये देखते हुए उन्होंने दामोदर को अपना दत्तक पुत्र घोषित कर दिया।

रानी लक्ष्मी बाई के इस कदम को देखते हुए अंग्रेजों की सरकार ने उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और लक्ष्मीबाई के खिलाफ खड़े हो गए। अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें सालाना कुछ रुपए पेंशन के तौर पर लेने और झांसी का किला उनके हवाले करने को कहा।

अंग्रेजों को चटाई धूल

जहां अंग्रेजी हुकूमत भारत की रियासतों पर कब्जा जमाती जा रही थी तो वहीं रानी लक्ष्मीबाई ने यह कह दिया था कि मैं अपनी झांसी किसी को नहीं दूंगी। 22 मार्च 1858 को वह दिन आया जब ब्रिटिश फौज ने इस पर आक्रमण कर दिया और 30 मार्च को भारी बमबारी करते हुए उन्होंने झांसी के किले में सेंध लगा दी। रानी अपनी छोटी सी सेना के साथ अंग्रेजों का कड़ा मुकाबला कर रही थी और उनके दांत खट्टे करती नजर आ रही थी। जून 1858 को जब वह जंग के लिए निकली तो उन्हें पता नहीं था कि उनकी आखिरी जंग होगी। पुत्र दामोदर को उन्होंने पीठ पर बांधा और जंग के मैदान में कूद पड़ी और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाते हुए अपनी अंतिम सांस तक मातृभूमि को रक्षा के लिए लड़ती रहीं और अंत में वीरगति को प्राप्त हुईं। उनकी वीरता के किस्से आज भी लोगों के बीच मशहूर है और यह कहा जाता है कि वीरांगना हो तो रानी लक्ष्मीबाई जैसी।


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"पत्रकारिता का मुख्य काम है, लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को संदर्भ के साथ इस तरह रखना कि हम उसका इस्तेमाल मनुष्य की स्थिति सुधारने में कर सकें।” इसी उद्देश्य के साथ मैं पिछले 10 वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रही हूं। मुझे डिजिटल से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अनुभव है। मैं कॉपी राइटिंग, वेब कॉन्टेंट राइटिंग करना जानती हूं। मेरे पसंदीदा विषय दैनिक अपडेट, मनोरंजन और जीवनशैली समेत अन्य विषयों से संबंधित है।

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