Skin Tones: सदियों से दुनिया भर में रंग के आधार पर भेदभाव होता रहा है। यूरोपीय और अमेरिकी अक्सर खुद को अफ्रीकी और एशियाई लोगों से बेहतर और अधिक बुद्धिमान समझते थे। आजकल लोग नस्लभेद को गलत मानते हैं और कहते हैं कि व्यक्ति का रंग नहीं, उसका चरित्र महत्वपूर्ण है। लेकिन फिर भी, कई लोग गोरे रंग से अधिक प्रभावित होते हैं।यह कल्पना करना आश्चर्यजनक है कि कभी एक समय था जब पूरी दुनिया के लोग काले रंग के होते थे।
मानव सभ्यता की शुरुआत एक ही यानी काले रंग से हुई थी, जो धीरे-धीरे समय के साथ विभिन्न रंगों में बदल गया और आज हम दुनिया भर में विविध त्वचा रंगों वाले लोगों को देखते हैं। भारत में भी, उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों की त्वचा का रंग भिन्न होना इसी विविधता का ही हिस्सा है। यह सब कैसे हुआ? विज्ञान के अनुसार, मानव त्वचा में मेलेनिन नामक रंगद्रव्य होता है। जिन लोगों में अधिक मेलेनिन होता है, उनकी त्वचा का रंग गहरा होता है। जिन लोगों में कम मेलेनिन होता है, उनकी त्वचा का रंग हल्का होता है। मानव आवास स्थान और पर्यावरण के अनुकूलन के कारण मेलेनिन की मात्रा बदलती है।
मानव त्वचा रंग का विज्ञान
इंसानों की त्वचा का रंग मेलेनिन नामक एक रंगद्रव्य के कारण अलग-अलग होता है। यह रंगद्रव्य हमारी त्वचा में मेलेनोसाइट्स नामक कोशिकाओं द्वारा उत्पादित होता है। मेलेनिन की मात्रा व्यक्ति के जीन और पर्यावरण पर निर्भर करती है। जिन लोगों में अधिक मेलेनिन होता है, उनकी त्वचा का रंग गहरा होता है, जैसे काला या भूरा। जिन लोगों में कम मेलेनिन होता है, उनकी त्वचा का रंग हल्का होता है, जैसे गोरा या सफेद। त्वचा का रंग हमारे पूर्वजों के अनुकूलन का परिणाम है। गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में अधिक मेलेनिन होता है क्योंकि यह सूर्य से हानिकारक पराबैंगनी विकिरण से बचाव करता है। ठंडी जलवायु वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में कम मेलेनिन होता है क्योंकि यह विटामिन डी के उत्पादन में मदद करता है, जो हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। त्वचा का रंग एक जैविक विशेषता है और इसके आधार पर किसी व्यक्ति के बारे में कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए। हर इंसान अद्वितीय और सुंदर है, चाहे उसकी त्वचा का रंग कुछ भी हो।
मानव त्वचा रंग का इतिहास
करीब 2.5 से 3 लाख साल पहले, जब मानव सभ्यता का विकास अफ्रीका में हुआ था, उस समय इंसानों का रंग गहरा काला हुआ करता था। इक्वेटर के पास गर्मी से बचाव के लिए यह रंग उनके लिए बहुत उपयोगी था। गहरे रंग की त्वचा सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से रक्षा करती है। यह सुरक्षा मेलेनिन नामक रंगद्रव्य के कारण होती है, जो त्वचा में पाया जाता है। यदि किसी व्यक्ति के शरीर में मेलेनिन नहीं होता और वह ऐसे क्षेत्र में रहता है जहाँ सूर्य की तेज किरणें पूरे दिन बरसती रहती हैं, तो उसके शरीर में मौजूद फोलेट नामक पोषक तत्व क्षतिग्रस्त हो सकता है। फोलेट हमारे शरीर में कोशिकाओं के विभाजन के लिए आवश्यक होता है। यदि फोलेट क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो कोशिकाओं का विभाजन ठीक से नहीं हो पाता, जिसके कारण शरीर का विकास प्रभावित हो सकता है।
इसलिए, गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए मेलेनिन का होना बहुत महत्वपूर्ण है।
आखिर स्किन कलर में बदलाव कैसे आए?
मानव सभ्यता की शुरुआत अफ्रीका में गहरे रंग के लोगों से हुई थी। लेकिन समय के साथ मनुष्य दुनिया के अन्य भागों में महाविस्थापन करते गए, और उनकी त्वचा का रंग भी बदलता गया। यह बदलाव कई कारणों से हुआ, जिनमें जीन उत्परिवर्तन, भौगोलिक स्थान और पर्यावरण शामिल हैं।
आइए इन कारणों को थोड़ा विस्तार से समझते हैं:
1. जीन उत्परिवर्तन
अफ्रीकी लोगों में KIT जीन होता है, जो मेलेनिन नामक रंगद्रव्य के उत्पादन के लिए जिम्मेदार होता है। महाविस्थापन के दौरान, यह जीन दुनिया के अन्य क्षेत्रों में भी पहुंचा। लेकिन समय के साथ, इस जीन में उत्परिवर्तन हुए, जिसके परिणामस्वरूप कुछ लोगों में मेलेनिन का उत्पादन कम हो गया।
2. भौगोलिक स्थान:
सूर्य की किरणें धरती पर समान रूप से नहीं पड़तीं। अफ्रीका में सूर्य की किरणें अधिक तीव्र होती हैं, इसलिए वहां के लोगों को अधिक मेलेनिन की आवश्यकता होती है। यूरोप और अमेरिका जैसे ठंडे क्षेत्रों में सूर्य की किरणें कम तीव्र होती हैं, इसलिए वहां के लोगों को कम मेलेनिन की आवश्यकता होती है।
3. पर्यावरण:
अफ्रीका और एशिया में लोग खेती और पशुपालन करते थे, जिसके लिए उन्हें दिन भर धूप में काम करना पड़ता था। इस वजह से उनकी त्वचा और भी अधिक गहरे रंग की हो गई।