Impact of Carbon Footprint on Climate Change : इन दिनों अक्सर कार्बन फुटप्रिंट की चर्चाएं देखने-सुनने को मिल रही है। क्या आप इसके बारे में जानते हैं ? कार्बन फुटप्रिंट एक अवधारणा है जो हमारे दैनिक क्रियाकलापों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) और अन्य ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को मापती है। इसे प्रति व्यक्ति, संगठन, गतिविधि या देश के आधार पर टन में मापा जाता है। इसका उपयोग पर्यावरण पर इसके प्रभाव को मापने के लिए किया जाता है।
कार्बन फुटप्रिंट में खाने-पीने की चीजों का उत्पादन, बिजली का उपयोग और परिवहन के साधनों से होने वाला उत्सर्जन शामिल होता है जिससे ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन पर गहरा असर पड़ता है। इसे आम तौर पर “कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य” (CO₂-eq) में मापा जाता है, ताकि विभिन्न प्रकार की ग्रीनहाउस गैसों को एक ही इकाई में दर्शाया जा सके।
क्या है Carbon footprint
इन दिनों कार्बन फुटप्रिंट कम करने पर ज़ोर दिया जा रहा है और दुनियाभर में इसे लेकर कई अभियान चलाए जा रहे हैं। कार्बन फुटप्रिंट एक माप है और यह माप विभिन्न गतिविधियों जैसे एक साल में किसी व्यक्ति या कंपनी द्वारा उत्सर्जित कार्बन, एक किलोमीटर यात्रा, एक कपड़े के टुकड़े या किसी प्रोटीन युक्त भोजन की उत्पादन प्रक्रिया में उत्सर्जित कार्बन को दर्शाने में सहायक होता है। किसी उत्पाद का कार्बन फुटप्रिंट उसकी निर्माण प्रक्रिया से लेकर उसके अंत तक पूरे जीवन चक्र में किए गए उत्सर्जन को शामिल करता है। इसी तरह, किसी संगठन के कार्बन फुटप्रिंट में उसके प्रत्यक्ष (जैसे कि फैक्ट्री से निकलने वाली गैसें) और अप्रत्यक्ष (जैसे कि ऊर्जा के लिए खरीदी गई बिजली) दोनों प्रकार के उत्सर्जन शामिल होते हैं। सरल शब्दों में, कार्बन फुटप्रिंट इस बात का संकेतक है कि किसी गतिविधि या उत्पाद से पर्यावरण पर कितना प्रभाव पड़ता है और इसे नियंत्रित करके हम ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने में मदद कर सकते हैं।
कार्बन फुटप्रिंट के प्रभाव
अब दुनियाभर में कार्बन फुटप्रिंट को कम करने पर जोर दिया जा रहा है क्योंकि कार्बन उत्सर्जन का सीधा संबंध ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से है। कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैस पृथ्वी के तापमान को बढ़ाती हैं, जिससे मौसम में असामान्य बदलाव, बाढ़, सूखा जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।
1. जलवायु परिवर्तन : कार्बन फुटप्रिंट नियंत्रित न करने से पृथ्वी का तापमान बढ़ता रहेगा, जिससे ग्लोबल वार्मिंग और भी तेज़ होगी। इससे ध्रुवीय बर्फ पिघलेगी, समुद्र स्तर बढ़ेगा, और तटीय क्षेत्रों में बाढ़ जैसी आपदाओं का खतरा बढ़ने की आशंका है
।
2. जैव विविधता पर प्रभाव : बढ़ते तापमान से कई प्रजातियाँ विलुप्त हो सकती हैं क्योंकि वे तेजी से बदलते पर्यावरण में समायोजित नहीं हो पाती। इससे पृथ्वी की जैव विविधता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा
।
3. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव : बढ़ता तापमान और प्रदूषण का स्तर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे कि साँस के रोग, हृदय रोग और गर्मी से संबंधित कई बीमारियों का कारण बनता है। WHO के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से लाखों लोगों की जान को खतरा हो सकता है
।
4. अर्थव्यवस्था पर प्रभाव : जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ने से कृषि, मत्स्य, पर्यटन और अन्य उद्योगों पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है
।
कार्बन फुटप्रिंट कम करने के प्रयास
दुनिया भर में कार्बन फुटप्रिंट को कम करने पर जोर दिया जा रहा है ताकि ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित किया जा सके और औसत वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रोका जा सके। साथ ही, ऊर्जा स्रोतों को जीवाश्म ईंधनों से बदलकर सौर और पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय विकल्पों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस दिशा में दुनियाभर में कई अभियान और समझौते भी चलाए जा रहे हैं। जैसे कि पेरिस समझौता जोकि 2015 में ग्लोबल वार्मिंग को 1.5°C तक सीमित करने के लिए किया गया था, जिसमें विभिन्न देशों ने कार्बन उत्सर्जन घटाने का वादा किया है। इस मुद्दे पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) का कहना है कि यदि कार्बन उत्सर्जन को समय रहते नियंत्रित नहीं किया गया तो इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं, बाढ़, सूखे, और पारिस्थितिक तंत्र को गंभीर नुकसान का खतरा बढ़ सकता है।
कार्बन फुटप्रिंट कम करने के प्रमुख वैश्विक अभियान
1. पेरिस समझौता – पेरिस समझौते के तहत 2015 में 190 से अधिक देशों ने वैश्विक तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने का संकल्प लिया। इसमें प्रत्येक देश द्वारा अपने उत्सर्जन को नियंत्रित करने की योजनाओं पर सहमति हुई है।
2. क्लाइमेट फ्रेंडली टेक्नोलॉजी – कई देश और कंपनियां जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता घटाने के लिए सौर और पवन ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहनों और ऊर्जा दक्षता तकनीकों को अपनाने पर जोर दे रही हैं। जैसे यूरोपीय संघ ने 2050 तक “नेट जीरो” उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है, जिसका मतलब है कि कुल मिलाकर जितना उत्सर्जन हो, उसे अवशोषित भी किया जाए।
3. हरित रोजगार – हरित रोजगार (green jobs) को बढ़ावा देने के लिए नीतियाँ बनाई जा रही हैं ताकि लोग पर्यावरण अनुकूल कार्यों में रोजगार पा सकें। चीन, यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश किया जा रहा है।
4. कार्बन ट्रस्ट और अन्य संस्थाएं – ये संस्थाएं व्यक्तिगत, औद्योगिक, और राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन फुटप्रिंट को मापने और कम करने के उपाय प्रदान करती हैं। इसके लिए पर्यावरणीय लेबलिंग, कार्बन कैप्चर टेक्नोलॉजी और री-साइकलिंग जैसी गतिविधियां बढ़ाई जा रही हैं।