भोपाल, डेस्क रिपोर्ट। चेहरे पर सूरज सा तेज, आंखों में बिजली सी चमक और दिल में बस एक ही सपना मातृभूमि की आज़ादी, इस सपने को पूरा करने के लिए एक 15 साल का लड़का अंग्रेज़ो के खिलाफ लड़ाई में उतर गया और फिर कभी उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
आलीराजपुर जिले के भाभरा गांव में रहने वाले पंडित सीताराम और जगरानी देवी के घर 23 जुलाई 1906 के दिन पुत्र का जन्म हुआ। परिवार ने बच्चे का नाम चंद्रशेखर तिवारी रखा। पंडित परिवार में जन्मे होने की वजह से चंद्रशेखर की मां चाहती थीं कि उनका बेटा संस्कृत का प्रकांड विद्वान बने और इसके लिए वो अपने बेटे को बनारस में काशी विद्यापीठ में भेजना चाहती थीं। पर किस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर था।
यह भी पढ़ें – MP News : CM Helpline द्वारा जारी ग्रेडिंग में परिवहन विभाग पुनः अव्वल
बचपन से ही मातृभूमि की रक्षा के लिए न्यौछावर हुए बलिदानियों के किस्से चंद्रशेखर के दिल और दिमाग पर इस तरह घर कर चुके थे कि जब जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की तब 15 साल के चंद्रशेखर ने न केवल इसमें हिस्सा लिया बल्कि ब्रिटिश सरकार द्वारा वह गिरफ्तार भी किए गए। गिरफ्तारी के बाद जब जज ने उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम आजाद और अपने पिता का नाम स्वतंत्र बताया।
गांधी के असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद आजाद ने खुद को गांधी की धारणाओं से अलग कर लिया। उन्होंने अन्य साथियों के साथ मिलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया। 1925 में काकोरी ट्रेन लूट 1928 में सौंडर की हत्या के बाद आजाद का नाम हर तरफ छा गया। लाला लाजपत राय की मृत्यु के उपरांत भगत सिंह और राजगुरु दोनों ने ही आजाद के इस एसोसिएशन से जुड़ गए।
यह भी पढ़ें – Russia vs Ukraine War: यूक्रेन की सहायता के लिए नीदरलैंड आया आगे
आजाद ने झाबुआ के भीलो से तीरंदाजी करना सीखा, जिससे जरूरत पड़ने पर वॉइस का इस्तेमाल अंग्रेजो के खिलाफ कर सकें। आजाद समाजवाद को भविष्य के भारत का स्तंभ मानते थे उनके हिसाब से उनके सपनों का भारत वह होगा जिसमें ना तो कोई सामाजिक बेड़ियों में बंधा होगा और ना ही कोई आर्थिक बेड़ियों में फंसा होगा।
27 फरवरी 1931 के दिन उनकी ही 1 साथी द्वारा गद्दारी की गई जिसके चलते पुलिस ने आजाद को अल्फ्रेड पार्क में चारों तरफ से घेर लिया। इसके चलते आजाद का वहां से निकलना नामुमकिन था। मन से आजाद, तन से आजाद और विचारों से आजाद, चंद्रशेखर आजाद ने जो कसम ली थी कि “दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आजाद ही जिए हैं आजाद ही रहेंगे”, अपने खुद से किए गए वादे को पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली से खुद को अमर कर लिया।