भोपाल। इस बार एमपी का लोकसभा चुनाव बड़ा ही दिलचस्प होने वाला है। राजनैतिक पार्टियों के साथ साथ कई दिग्गज नेताओं की साख भी दांव पर लगी हुई है। विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव जीतना बड़े नेताओं के लिए चुनौती बनता नजर आ रहा है। अगर ये नेता विधानसभा की तरह लोकसभा भी हार गए तो शायद इनका पॉलिटिल कैरियर खत्म हो जाए। इनका राजनीतिक कैरियर इस हार-जीत पर टिक गया है। ये पिछले कई चुनाव हारे हैं, इसलिए इनका राजनीतिक भविष्य दांव पर है। इनके लिए यह चुनाव अग्नि परीक्षा की तरह है। हारे तो हाशिए पर जाने का खतरा है।वही आने वाले समय में पार्टी द्वारा भी दरकिनार किए जाने की उम्मीद है। हाल में हुए विधानसभा चुनाव इसका जीता जागता उदाहऱण है। चुनाव के बाद कई नेताओं को साइन लाइन किया गया है।इसके पहले भी कई नेताओं पर हार का ठीकरा फोड़कर उन्हें नजर अंदाज किया जा चुका है। ऐसे में अब ये लोकसभा चुनाव और भी रोमांचक हो चला है।खैर परिणाम क्या होंगें ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
इनका कैरियर लगा है दांव पर
सुरेश पचौरी, पूर्व केंद्रीय मंत्री
सुरेश पचौरी होशंगाबाद सीट से दावेदारी कर रहे हैं। उन्होंने विधानसभा चुनाव में रायसेन में सुरेंद्र पटवा से मात खाई है। वे पटवा से 2013 में भी हारे हैं। पचौरी 1999 का लोकसभा चुनाव भोपाल से भाजपा प्रत्याशी उमा भारती से हार गए थे। पचौरी अब तक एक भी चुनाव नहीं जीत पाए हैं, इसलिए इस बार चुनाव लड़ते हैं तो उनके राजनीतिक कैरियर की अग्नि परीक्षा होगी।हालांकि उन्हें टिकट देना पार्टी के लिए चुनौती साबित होगी।
अजय सिंह, पूर्व नेता प्रतिपक्ष
अजय सिंह भी इस दौड़ में शामिल है। अजय पिछले लोकसभा चुनाव में सतना में भाजपा के गणेश सिंह से हार गए थे। फिर मैहर उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी नारायण त्रिपाठी को हराने के लिए अपने प्रत्याशी के समर्थन में मैदान संभाला, लेकिन निराशा हाथ आई। इसके बाद हाल ही में अपने गढ़ चुरहट से विधानसभा चुनाव हार गए।अजय सिंह ने सतना से टिकट की मांग की थी लेकिन इस बार पार्टी ने उन्हें सीधी लोकसभा सीट से तैयारी करने के संकेत दिए हैं।पार्टी इस बार कोई रिस्क नही लेना चाहती। यदि इस बार की जीत-हार उनका कद तय करेगी।
राजेंद्र सिंह, पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष
राजेंद्र सिंह राजनीतिक कैरियर के आखिरी पायदान पर हैं। विधानसभा चुनाव अमरपाटन से हारे हैं। क्षेत्र में उनकी और अजय सिंह की राजनीतिक अदावत है। वे सतना लोकसभा क्षेत्र से दावेदारी कर रहे हैं। क्षेत्रीय दिग्गज नेता होने के कारण उनका टिकट लगभग तय है, लेकिन यदि यहां हार मिलती है तो हाशिए पर जा सकते हैं। इनका पॉलिटिकट करियर खत्म हो सकता है।
अरुण यादव, पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष
अरुण यादव का नाम खंडवा सीट से लगभग तय है। अरुण पिछली बार भाजपा प्रत्याशी नंदकुमार सिंह चौहान से हारे थे। तब वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी थे। विधानसभा चुनाव 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से हारे हैं। खंडवा से कांग्रेस में शामिल हुए निर्दलीय विधायक सुरेन्द्र सिंह शेरा उनका खुला विरोध कर रहे हैं। ऐसे में इस बार की हार राजनीतिक हाशिए पर ला सकती है। वे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सकारात्मक होने के कारण मैदान में उतर रहे हैं।
रामनिवास रावत, पूर्व विधायक
विजयपुर से विधानसभा चुनाव हारने के बाद रावत के लिए यह चुनाव राजनीतिक भविष्य बचाने वाला साबित होगा। रावत पिछला लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव हारे। चुनावी हार के कारण उनका ग्राफ लगातार गिरा है। मुरैना सीट से उनका नाम लगभग तय है। इस बार यदि रावत चुनाव हार जाते हैं तो उनके लिए हाशिए पर जाने के हालत हैं।
कठिन सीट के चलते दिग्विजय की भी साख दांव पर
मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा वरिष्ठ नेता दिग्विजय को कठिन सीट से चुनाव लड़ने के सुझाव के बाद यह चुनाव जीतना दिग्गी के लिए चुनौती बन सकता है। भोपाल या इंदौर सीट से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह चुनाव लड़ते हैं तो उनके लिए भी यह राजनीतिक भविष्य का सवाल होगा। यदि चुनाव हारते हैं तो उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा धूमिल होगी। साथ ही अगले पांच साल की प्रदेश सरकार में उनकी बात की वजनदारी कम हो जाएगी।अगर उन्हें जीत मिलती है तो पार्टी में उनका कद औऱ बढ़ जाएगा।
भाजपा में भी खतरे कम नहीं
भाजपा के भी कुछ दिग्गिजों के भविष्य का फैसला इस लोकसभा चुनाव के परिणामों के आधार पर होगा। पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया विधानसभा चुनाव हारे हैं। इससे पहले दो बार लोकसभा चुनाव भी हार चुके हैं। इसी तरह लोकसभा चुनाव में चंद्रभान सिंह छिंदवाड़ा सीट पर लगातार हार रहे हैं। वे विधानसभा चुनाव भी हार चुके हैं। लगातार हार के कारण इनके सामने राजनीतिक भविष्य का सवाल है। वहीं, दूसरी ओर लगातार जीत दर्ज कराने के बावजूद कुछ दिग्गज नेताओं के लिए ये चुनाव प्रतिष्ठा का सवाल बन गए हैं। सुमित्रा महाजन इंदौर सीट पर पहले चुनाव नहीं लडऩे का कहने के बाद अब वापस मैदान में उतर आई हैंं। इंदौर सुमित्रा का गढ़ है, लेकिन कांग्रेस इस बार आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं। ऐसे में सुमित्रा का विजय रथ रुकता है तो उनके राजनीतिक कैरियर की ढलान का आगाज हो सकता है। खंडवा सीट पर नंदकुमार सिंह चौहान के लिए भी राजनीतिक चिंता के हालत है। 2009 में वे यहां चुनाव हार चुके हैं, फिर 2014 में जीते। इस बार पार्टी में ही भितरघात से जूझ रही है। क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा से उनके लिए जीत प्रतिष्ठा का सवाल बन गई है। दूसरी ओर नरेंद्र सिंह तोमर ग्वालियर सीट पर अभी सांसद हैं। उनके लिए भी यह चुनाव राजनीतिक प्रतिष्ठा का है। वे लगातार सीट बदलने का प्रयास कर रहे हैं, इस बार भी वे मुरैना से अपनी दावेदारी कर रहे हैं। यहां से यदि उनकी हार होती है तो लगातार जीत के बाद यह उनकी बड़ी विफलता हो सकती है।