बाल दिवस : स्पेशल चाइल्ड को भी खुशियों में मिले बराबरी की भागीदारी (प्रवीण कक्कड़)

Gaurav Sharma
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भोपाल, डेस्क रिपोर्ट। आज देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती है। नेहरूजी देश की आने वाली पीढ़ियों के लिए राष्ट्र निर्माण कर रहे थे, बच्चे उन्हें बहुत दुलारे थे। इसीलिए उनका जन्मदिन बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस उत्सव के माहौल में हमें उन बच्चों को भी याद करना चाहिए और उनकी जरूरतों की कद्र करनी चाहिए जो स्पेशल चाइल्ड हैं। स्पेशल चाइल्ड यानी ऐसे बच्चे जो किसी तरह की शारीरिक या मानसिक विकलांगता का शिकार हैं। यह बच्चे भी बाकी बच्चों की तरह अपना जीवन गुजारना चाहते हैं। वे भी समाज में बराबरी की भागीदारी चाहते हैं और उनका भी समाज के निर्माण में बराबरी का योगदान हो सकता है।

बाल दिवस : स्पेशल चाइल्ड को भी खुशियों में मिले बराबरी की भागीदारी (प्रवीण कक्कड़)

भारत की बात करें तो यूनेस्को की स्टेट ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट इंडिया 2019 के मुताबिक भारत में 78 लाख बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें हम स्पेशल चाइल्ड की कैटेगरी में डाल सकते हैं। यह आंकड़ा यूनेस्को का है, लेकिन स्पेशल चाइल्ड के मामले में विशेष रूप से काम करने वाली मुंबई की एडेप्ट (पुराना नाम स्पेसटिक्स सोसायटी ऑफ इंडिया) के मुताबिक यूनेस्को की रिपोर्ट का आंकड़ा काफी कम है, जबकि असल में भारत में करीब दो करोड़ बच्चे स्पेशल चाइल्ड की श्रेणी में आते हैं। स्पेशल चाइल्ड की संख्या को लेकर मतभिन्नता हो सकती है, लेकिन असल बात यह है कि हम स्पेशल चाइल्ड को किस तरह पहचानें और किस तरह ऐसा आचरण करें कि वह भी बाकी बच्चों की तरह खुशहाली से अपना जीवन जी सकें।

मुख्य रूप से देखें तो पोलियो, नेत्रहीनता या दूसरी शारीरिक विकलांगता को समाज बड़ी आसानी से पहचान लेता है। और अब इतनी जागरूकता आ गई है कि इस तरह के स्पेशल चाइल्ड के लिए सार्वजनिक परिवहन और सार्वजनिक स्थलों पर विशेष इंतजाम कर दिए गए हैं। लेकिन स्पेशल चाइल्ड की एक दूसरी श्रेणी भी है जो स्नायु तंत्र या मानसिक व्याधियों से जुड़ी हुई है। ऑटिज्म, एस्पर्जर सिंड्रोम, सेरेब्रल पाल्सी और इसी तरह की दूसरी स्नायु तंत्र या मानसिक तंत्र से जुड़ी हुई बीमारियां हैं, जो बच्चों को खासा परेशान करती हैं। इस तरह के बच्चों का पालन पोषण करना उनके माता-पिता या अभिभावकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती का काम होता है। सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि मां-बाप अपनी संतान से प्यार तो बहुत करते हैं, लेकिन उनके पास इस तरह की ट्रेनिंग नहीं होती है कि वे इन बच्चों का उचित तरीके से लालन पालन कर सकें। स्पेशल चाइल्ड नीड ट्रस्ट के मुताबिक इस तरह के स्पेशल चाइल्ड को जिस चीज की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है, वह है भरोसा और स्नेह। ऐसा बच्चा अपने माता-पिता पर तो भरोसा कर लेता है, लेकिन बाहरी समाज की इस तरह की ट्रेनिंग नहीं होती है कि वे स्पेशल चाइल्ड के भीतर भरोसा जगा सकें।

यही वजह है की यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 5 से 19 वर्ष के 75% स्पेशल चाइल्ड अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते हैं। इस परिस्थिति में वे एक बार फिर से बाहरी दुनिया से बहुत घुल मिल नहीं पाते। इसके लिए नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020 में स्पष्ट प्रावधान है की स्कूलों में ब्रेल लिपि में पढ़ाने वाले योग्य शिक्षक की नियुक्ति हो, इसके अलावा भारतीय भाषाओं की सांकेतिक लिपि भी पढ़ाने वालों की व्यवस्था की जाए। इस समय देश में 2500 के करीब ऐसे सरकारी और एनजीओ संचालित स्कूल हैं, जहां स्पेशल चाइल्ड को पढ़ाने की विशेष व्यवस्था है। जाहिर है कि यह संख्या काफी कम है और इसे और ज्यादा बढ़ाने की जरूरत है।

स्कूलों के साथ ही हमें समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की भी आवश्यकता है। ऐसे मामलों में हम महान गणितज्ञ स्टीफन हॉकिंग का उदाहरण ले सकते हैं। हम सबको पता है कि वह भी गंभीर स्नायु तंत्र की बीमारी से ग्रसित थे और एक कुर्सी पर ही बैठे रहते थे। वह तो बोलने या शरीर को हिलाने में भी असमर्थ थे। इसका मतलब यह हुआ कि अगर प्रकृति ने किसी के शरीर में कोई एक विकृति दी है तो उसकी भरपाई के लिए कोई दूसरी अद्भुत क्षमता भी दे रखी है। स्पेशल चाइल्ड के मामले में इसी बात का ध्यान रखा जाना है। हमें स्पेशल चाइल्ड के अंदर वे खूबियां और प्रतिभा खोजनी है, जिसमें वह अपने आप को व्यक्त कर सकता है। संगीतकार और गायक रविंद्र जैन को कौन नहीं जानता। रामानंद सागर कृत रामायण धारावाहिक और राज कपूर की मशहूर फिल्म हिना में भी उन्हीं का संगीत था। पैरा ओलंपिक खेलों में भारत के स्पेशल चाइल्ड ने अपना एक खास मुकाम हासिल किया।

अष्टावक्र का किस्सा तो बहुत मशहूर है। अष्टावक्र के शरीर में आठ तरह की विकलांगता थी। एक बार जब वह राजा जनक के दरबार में पहुंचे तो वहां मौजूद दरबारी उनका उपहास करने लगे। जवाब में अष्टावक्र ने कहा “मो पर हंसहि के कुम्हारहिं” अर्थात मुझ पर हंस रहे हो या मुझे बनाने वाले परमात्मा पर हंस रहे हो। अष्टावक्र ज्ञान की खान थे और उनका स्पेशल चाइल्ड होना उनकी प्रतिभा के आगे नहीं आ सका लेकिन हम लोगों को उन दरबारियों के बारे में सोचना चाहिए जो अष्टावक्र का मजाक उड़ा रहे थे। कहीं हमारा आचरण किसी स्पेशल चाइल्ड के मामले में मजाक उड़ाने वाला तो नहीं है? क्योंकि अगर हम किसी ऐसे बच्चे का मजाक उड़ाते हैं तो असल में हम सबको और उस बच्चे को बनाने वाले परमात्मा का मजाक उड़ा रहे हैं।

हमें स्पेशल चाइल्ड के लिए अपनी सार्वजनिक नीति में बदलाव करना चाहिए। वे तमाम नई तकनीक और ज्ञान स्कूलों में उपलब्ध कराना चाहिए जिससे स्पेशल चाइल्ड बेहतर ढंग से पढ़ लिख सकें। और इससे बढ़कर हमें अपने मन में ऐसी धारणा बनानी चाहिए कि सभी मनुष्य समान हैं। किसी को किसी को नीची की निगाह से देखने की छूट नहीं है। ऐसा करना मानवता के खिलाफ अपराध ही नहीं है बल्कि पाप है। तो आइए इस बाल दिवस पर अपने बच्चों के साथ खुशियां बांटे और अपने बच्चों को सिखाएं कि वह अपने स्पेशल भाई बहनों का पूरा ख्याल रखें। उनकी मदद करें और उन्हें अपने साथ हंसता खेलता हुआ देखने में खुश हों। यही सच्चा बाल दिवस है।

इस आर्टिकल के लेखक हैं प्रवीण कक्कड़ (पूर्व नौकरशाह एवम् समाज सेवी)


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पत्रकारिता पेशा नहीं ज़िम्मेदारी है और जब बात ज़िम्मेदारी की होती है तब ईमानदारी और जवाबदारी से दूरी बनाना असंभव हो जाता है। एक पत्रकार की जवाबदारी समाज के लिए उतनी ही आवश्यक होती है जितनी परिवार के लिए क्यूंकि समाज का हर वर्ग हर शख्स पत्रकार पर आंख बंद कर उस तरह ही भरोसा करता है जितना एक परिवार का सदस्य करता है। पत्रकारिता मनुष्य को समाज के हर परिवेश हर घटनाक्रम से अवगत कराती है, यह इतनी व्यापक है कि जीवन का कोई भी पक्ष इससे अछूता नहीं है। यह समाज की विकृतियों का पर्दाफाश कर उन्हे नष्ट करने में हर वर्ग की मदद करती है।इसलिए पं. कमलापति त्रिपाठी ने लिखा है कि," ज्ञान और विज्ञान, दर्शन और साहित्य, कला और कारीगरी, राजनीति और अर्थनीति, समाजशास्त्र और इतिहास, संघर्ष तथा क्रांति, उत्थान और पतन, निर्माण और विनाश, प्रगति और दुर्गति के छोटे-बड़े प्रवाहों को प्रतिबिंबित करने में पत्रकारिता के समान दूसरा कौन सफल हो सकता है।

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