भोपाल, डेस्क रिपोर्ट। ‘वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है’ ‘लम्हों ने खता की थी सदियों ने सज़ा पाई’…ऐसे ही शेरों के कई मिसरे होंगे जिनका इस्तेमाल आपने भी कभी न कभी किया ही होगा। लेकिन क्या आपको कभी खयाल आया कि इसके पहले या बाद की पंक्ति क्या थी।
ग़ज़ल की हर पंक्ति को मिसरा कहा जाता। इसी तरह दो मिसरों को मिलाकर एक शेर बनता है। ग़ज़ल के पहले शेर को मतला कहा जाता है और आख़िरी शेर को मक़्ता। इस तरह कई ग़ज़लें पूरी की पूरी मशहूर हो गई तो किसी का कोई एक दो या कुछ शेर लोगों की ज़बान पर चढ़ गए। यूं ही कई दफे ये भी हुआ कि शेर का एक मिसरा ही मशहूर हो गया और दूसरा कहीं खो सा गया। शेरो-शायरी की इस महफिल में आज हम आपके लिए ऐसे ही कुछ शेर लेकर लाए हैं जिनके मिसरे तो बहुत मशहूर हुए लेकिन हम पूरे शेर से नावाकिफ़ रह गए।
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।” – मिर्ज़ा ग़ालिब
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक।” – मिर्ज़ा ग़ालिब
‘मीर’ अमदन भी कोई मरता है? जान है तो जहान है प्यारे।” – मीर तक़ी मीर
“ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है।” – मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
“चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले, आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले।” – मिर्ज़ा मोहम्मद अली फ़िदवी
“शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी, कोई पत्थर से न मारे मेंरे दीवाने को।” – शैख़ तुराब अली क़लंदर काकोरवी
भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया, ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।” -माधव राम जौहर
“क़ैस जंगल में अकेला ही मुझे जाने दो, ख़ूब गुज़रेगी, जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।” मियाँ दाद ख़ां सय्याह
‘मीर’ अमदन भी कोई मरता है? जान है तो जहान है प्यारे।” – मीर तक़ी मीर
“ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम, रस्म-ए-दुनिया भी है,मौक़ा भी है, दस्तूर भी है।”- क़मर बदायूंनी
“ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने, लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।” – मुज़फ़्फ़र रज़्मी
दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग़ से, इस घर को आग लग गई, घर के चराग़ से।” – महताब राय ताबां