भोपाल, डेस्क रिपोर्ट। परिवार (Family) की परिभाषा को विस्तारिक करते हुए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने एक अहम फैसला दिया है। कोर्ट ने कहा है कि पारंपरिक परिवार की तरह पारिवारिक संबंधों में अविवाहित भागीदारी (लिव इन रिलेशनशिप) या समलैंगिक संबंध भी शामिल हैं। फैसले में कहा गया है कि अविवाहित सहजीवन या समलैंगिक रिश्ते जैसी असामान्य पारिवारिक इकाइयां भी समान रूप से कानून के संरक्षण की हकदार हैं। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ ने आज ये अहम फैसला सुनाया।
क्या है लिव इन रिलेशनशिप और समलैंगिक संबध
लिव इन संबंध या लिव इन रिलेशनशिप (Live-in Relationship) एक ऐसा रिश्ता है जिसमें दो लोग बिना विवाह के पति-पत्नी की तरह साथ में रहते हैं। हालांकि इस रिश्ते में सामान्यतया सामाजिक और पारिवारिक नियम लागू नहीं होते। वहीं वैवाहित जीवन की जवाबदारी भी नहीं होती है। दो बालिग स्त्री पुरुष अपनी मर्जी और सहमति से एक साथ रहते हैं लेकिन उनके बीच कोई विवाह की संविदा नहीं होती। हालांकि सुप्रीम कोर्ट कई बार ये कह चुका है कि लिव इन संबंधों में भी अधिकार और कर्तव्य होते हैं।
समलैंगिक संबंध (Homosexual Relationship) अंतर्गत एक ही जेंडर के दो व्यक्ति जब एक दूसरे से भावात्मक और शारीरिक रूप से आकर्षित होते हैं और रिश्ते में बंधते हैं। इसमे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ या एक महिला अन्य महिला के साथ संबंध में होती है। इन्हें पुरुष समलिंगी और महिला समलिंगी कहा जाता है। कुछ लोग बाइसेक्सुअल भी होते हैं अर्थात एक पुरुष किसी दूसरे पुरुष और महिला दोनों के प्रति आकर्षित हो और इसी तरह कोई महिला भी अन्य महिला के अलावा पुरुष के साथ भी संबंध में रहे। इन्हें उभयलिंगी कहा जाता है।
भारत में लिव इन रिलेशनशिप को लेकर कानून
भारत में लिव इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता दी गई है। घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 2(f) के अंतर्गत लिव इन को परिभाषित किया गया है। इसमें कहा गया है कि लिव इन रिलेशनशिप के लिए एक जोड़े का पति पत्नी की तरह साथ रहना जरुरी है। हालांकि इसके लिए कोई तय समय सीमा नहीं है लेकिन इनका लगातार एक साथ घर में रहना जरुरी है। ये घर के सामान का संयुक्त रूप से इस्तेमाल करते हों। इनका वयस्क होना जरुरी है और दोनों में से कोई भी पूर्व से विवाहित नहीं होना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद (section)-21 के तहत दिए गए राइट टू लाइफ यानी जीने के अधिकार की श्रेणी के तहत कोर्ट लिव इन रिलेशनशिप को अधिकार देता है।
साल 2006 में भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत ‘अडल्ट्री’ यानी व्याभिचार गैर कानूनी थी। तब शादी के बाहर संबंध अडल्ट्री की श्रेणी में आते थे। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘अडल्ट्री’ कानून को रद्द कर दिया जिसके बाद ये तय हुआ कि कोई भी लिव इन रिलेशनशिप इस वजह से गैर कानूनी नहीं कहा जा सकता कि वो अडल्ट्री की परिभाषा में आता है। लेकिन देश की अलग अलग अदालतों में शादीशुदा व्यक्ति के बिना तलाक लिए किसी और के साथ लिव इन में रहने को अब भी गैर कानूनी बताया जाता है।
इससे पहले साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने एक केस में फ़ैसला देते हुए कहा था एक वयस्क व्यक्ति किसी के साथ रहने या शादी करने के लिए आज़ाद है। ये केस लता सिंह बनाम स्टेट ऑफ यूपी का था। 2006 के इस केस में दो पक्षकारों ने घर से भागकर मंदिर में विवाह किया था और साथ रहने लगे थे। लेकिन उनका विवाह परंपरानुसार कर्मकांड के अनुरूप नहीं था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दो वयस्त लोग स्वेच्छा से पति पत्नी की तरह साथ रह सकते हैं और संतानोत्पत्ति भी कर सकते हैं। इसके लिए किसी कर्मकांड या वैध विवाह की जरूरत नहीं और इन दो लोगों के साथ में रहने को अपराध नहीं माना जा सकता है। इसमें शादी के अलावा ‘साथ रहने’ वाली बात से लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता मिल गई थी। इसी फैसले का हवाला सुप्रीम कोर्ट ने साल 2010 में अभिनेत्री खुशबू के ‘प्री-मैरिटल सेक्स’ और ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ के मामले में दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर महिला किसी पुरुष के साथ अपनी मर्जी से रह रही थी और बाद में संबंध बिगड़ते हैं तो वो पुरुष पर रेप का मामला दर्ज नहीं करा सकती। कहा गया कि कई बार देखा गया है कि महिला द्वारा शादी का झांसा देकर शारीरिक संबंध बनाने का आरोप लगाया जाता है। लेकिन लिव इन में रह चुकने की स्थिति में पुरुष पर बलात्कार का मामला नहीं बनता है। सुप्रीम कोर्ट ने ये बात राजस्थान के एक मामले पर कही जहां दो लोग 4 साल से लिव इन में रह रहे थे और उनकी एक बेटी भी है। लेकिन किसी विवाद के बाद महिला ने पुरुष पर रेप का मामला दर्ज करा दिया। हाईकोर्ट ने जब जमानत नहीं दी तो पुरुष ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। इस मामले पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने ये फैसला सुनाया।
लिव इन रिलेशनशिप को लेकर सामाजिक दृष्टिकोण
लिव इन में रह रहा महिला को अपने पुरुष साथी से भरण पोषण की मांग करने का अधिकार है। अगर इनकी कोई संतान होती है तो उसे अपने माता पिता की संपत्ति में पूरा अधिकार होगा। अदालत कई मामलों में ये बात दोहरा चुकी है कि लिव इन रिलेशनशिप को पर्सनल आटोनामी (personal autonomy) यानी व्यक्तिगत स्वायत्तता के चश्मे से देखने की आवश्यकता है। इसे सामाजिक नैतिकताओं की बनी बनाई धारणाओं के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन ये तो हुई कानून और अदालत की बात। सामाजिक रूप से आज भी लिव इन रिलेशनशिप को लेकर मिश्रित धारणाएं और सोच है। कठोर सामाजिक रूढ़िवादिता अब भी कई लोगों को अधिकारों से वंचित रखने का प्रयास करती है। हालांकि महानगरों में लिव इन के कॉन्सेप्ट को काफी हद तक स्वीकार किया जाने लगा है और इसे बड़े स्तर पर सामाजिक स्वीकृति भी मिल रही है। लेकिन जैसे जैसे हम मझौले और छोटे शहरों का रुख करते हैं, स्थिति अब भी बहुत आसान नहीं है।
लिव इन में रहने वाले कपल को छोटे स्थानों पर आसानी से सामाजिक मान्यता नहीं मिलती। उन्हें कई तरह के उलाहने और समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ये बात केवल भावनात्मक रूप से परेशान नहीं करती, कई जगह उन्हें रहने के लिए मकान नहीं मिलता और कार्यस्थल पर भी इस कारण भेदभाव का सामना करना पड़ता है। हमारे समाज में जहां विवाह को एक पवित्र संबंध माना जाता है, बिना विवाह के एक साथ रहने वाले जोड़े की इतनी सहज स्वीकार्यता अब भी नही बन पाई है। कानून या नियम बनाया जाना अलग बात है लेकिन मानसिकता का परिवर्त एक बहुत धीमी प्रक्रिया है। और लिव इन रिलेशनशिप को पूर्ण रूप से सामाजिक मान्यता मिलने में अभी काफी समय लगने वाला है।
लिव इन रिलेशनशिप के लाभ-हानि
लिव इन रिलेशल का सबसे बड़ा फायदा ये है कि आपको अपने पार्टनर को जानने समझने का पूरा मौका मिलता है। कई बार शादी में होता है कि बाद मे पता चलता है कि पति या पत्नी आपके स्वभाव से बिल्कुल उलट है या फिर उनके साथ किसी तरह का सौहार्दपूर्ण रिश्ता नहीं बन पा रहा है। लेकिन शादी से निकलना आसान नहीं। लिव इन में ये लाभ है कि आप अपने पार्टनर के साथ रहकर उसकी खूबियों और कमियों को बेहतर तरीके से जान सकते हैं। चूंकि अब इसे कानूनी मान्यता भी है तो इस आधार पर भी किसी तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है। अगर आगे शादी का विचार है तो लिव इन में रहकर इस फैसले पर पक्क मुहर लगाई जा सकती है।
अब भी ऐसे कपल्स पर सामाजिक दबाव होता है। कई बार किसी एक साथी को इनसिक्योरिटी हो सकती है। किसी तरह के झगड़े या अनबन के बाद कोई एक अगर रिश्ते से निकलना चाहे, तो दूसरा उसपर किसी तरह का दबाव नहीं बना सकता। ऐसे में कई बार किसी एक पार्टनर को धोखा मिलने की फीलिंग भी आ सकती है।
परिवार की परिभाषा पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का महत्व
आज दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून और समाज दोनों में ‘परिवार’ की अवधारणा की प्रमुख समझ यह है कि ‘इसमें एक मां और एक पिता और उनके बच्चों के साथ एक एकल, अपरिवर्तनीय इकाई होती है।’ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ ने फैसले में कहा कि यह धारणा कई परिस्थितियों में दोनों की उपेक्षा करती है, जो किसी के पारिवारिक ढांचे में बदलाव का कारण बन सकती है। पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित सहजीवन या समलैंगिक संबंधों का रूप ले सकते हैं।’
मौजूदा समय में ये फैसला बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि एलजीबीटी एक्टिविस्ट विवाह और नागरिक संघों को मान्यता देने की लगातार मांग कर रहे हैं। साथ ही 2018 में समलैंगिकता को शीर्ष अदालत द्वारा गैर-अपराधी बनाने के बाद लिव इन कपल को अपनाने की अनुमति देने का मुद्दा भी उठा रहे हैं। जब भी कोई फैसला सर्वोच्च अदालत द्वारा सुनाया जाता है तो उस विचार या नवाचार को कानून निर्माण होता है और इससे उसे मान्यता मिलती है। अदालत और कानूनी मान्यता मिलने के साथ ही इसे लेकर जनमानस की मानसिकता में भी परिवर्रतन की शुरुआत होती है। इस लिहाज़ से आज का फैसला लिव इन रिलेशनशिव और समलैंगिक जोड़ों के लिए एक ऐतिहासिक फैसला है।