Karpoori Thakur 100th birth anniversary : आज कर्पूरी ठाकुर की सौवीं जयंती है। 24 जनवरी 1924 को जन्मे इस जननायक को एक दिन पहले ही मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा की गई है। जनता दल यूनाइडेट ने उन्हें भारत रत्न देने की मांग की थी और सरकार के ऐलान के बाद कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर ने कहा कि ‘हमें 36 साल की तपस्या का फल मिला है।’
संघर्ष भरा बचपन
आज का दिन कर्पूरी ठाकुर को समझने का दिन है। कैसे एक साधारण परिवार में जन्मा व्यक्ति जननायक बन गया। आज उनके जीवन की यात्रा को याद करने का दिन है। कर्पूरी ठाकुर का जन्म बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौझिया गांव में हुआ था। वे जिस परिवार में जन्में..उसे बिहार में अति पिछड़ी जाति (पहले पिछड़ा वर्ग) में शुमार किया जाता था। उनके पिता का नाम गोकुल ठाकुर और मां रामदुलारी देवी थीं। पिता नाई का काम करने के साथ थोड़ी बहुत खेती भी करते थे और इसी तरह परिवार की आजीविका चलती थी। कर्पूरी ठाकुर बचपन से ही कुशाग्र थे और 1940 में उन्होंने पटना से मैट्रिक परीक्षा पास की। ये वो समय था जब दलित वर्ग के बच्चों को विद्यालय में प्रवेश मिलना ही कठिन था। इसके अलावा भी उनके सामने कई तरह की चुनौतियां होती थीं। समाज को जिस तरह से जातीय आधार पर बांटा गया था, उससे उपजी विसंगतियों को पार करते हुए आगे बढ़ना आसान नहीं था।
छात्र जीवन में राजनीति में प्रवेश
कर्पूरी ठाकुर का प्रारंभिक जीवन आसान नहीं था। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्होने दरभंगा के कॉलेज में प्रवेश लिया। कॉलेज पहुंचने के लिए उन्हें घर से लंबा सफर तय करना पड़ता। वो स्वतंत्रता आंदोलन का दौर था और छात्र जीवन के दौरान ही उनका रूझान भी इस ओर हुआ। कर्पूरी ने शुरु से ही अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई, उन्हें जहां मौका मिलता वो गलत के खिलाफ खड़े होने में कभी नहीं हिचकते। एक बार वे छात्र सभा को संबोधित कर रहे थे और उस समय ब्रिटिश शासन के खिलाफ बोलने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें एक दिन की जेल और 50 रुपये जुर्माना सुनाया गया। उन्होने गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया और समाजवाद का रास्ता चुना। 1942 में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें करीब 26 महीने जेल में बिताने पड़े। धीरे धीरे वे समाजवादी आंदोलन का चेहरा बनते गए।
विधायक से मुख्यमंत्री तक का सफर
डॉ राममनोहर लोहिया प्रखर समाजवादी नेता थे और छात्र जीवन से ही कर्पूरी ठाकुर उनके तथा नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, मधुलिमये जैसे दिग्गजों के सान्निध्य में आ गए थे। आज़ादी मिलने के बाद 1952 में जब पहला आम चुनाव हुआ तो वे समाजवादी पार्टी से ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। 1967 में बिहार विधानसभा चुनाव में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी एक बड़ी ताकत के रूप में उभरी और परिणाम ये रहा कि पहली बार प्रदेश में कांग्रेस के अलावा किसी और पार्टी की सरकार बनी। इस सरकार में महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बनाए गए और कर्पूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बने। इसी के साथ उन्हें शिक्षा मंत्री का दायित्व भी दिया गया। कुछ समय बाद राजनीतिक हालात बदले और 1970 में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बन गए। मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होने कई अहम फैसले लिए जिनमें खेतों की मालगुजारी खत्म करना और उर्दू को राज्य की भाषा का दर्जा देना जैसे निर्णय शामिल थे। हालांकि उनकी सरकार लंबी नहीं चल पाई और 1971 को वे सत्ता से बाहर हो गए। लेकिन इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी को बिहार में प्रचंड बहुमत मिला और कर्पूरी ठाकुर 24 जून 1977 से लेकर 21 अप्रैल 1979 तक मुख्यमंत्री रहे।
शिक्षा और सामाजिक न्याय के लिए काम किया
वे एक ऐसे जननायक थे जो पिछड़े, दलितों, शोषितों और महिलाओं को समाज में आगे लाने और सम्मानजनक स्थिति तक पहुंचाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहे। उन्हें पता था कि समाज को सही दिशा देने के लिए शिक्षा ही सबसे सही रास्ता है इसीलिए उन्होने इन सभी को शिक्षा से जोड़ने की कोशिश की। उन्होने शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की और पहले आठवीं और फिर दसवीं तक की शिक्षा मुफ्त की। बिहार के वंचित समाज में शिक्षा का अलख जगाने के लिए कर्पूरी ठाकुर का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सामाजिक समानता और न्याय के लिए उन्होने हर स्तर पर कार्य किया। 17 फरवरी 1988 को उनका निधन हुआ। लंबे समय से उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग की जा रही थी और उनके जयंती वर्ष में इसकी घोषणा की गई है। ये उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि है और आने वाले लंबे समय तक उनकी जीवनयात्रा लोगों को प्रेरित करती रहेगी।