आज वाल्मिकी जयंती (Valmiki Jayanti) है। हर साल अश्विन माह की पूर्णिमा तिथि को उनकी जयंती मनाई जाती है। सनातन धर्म में महर्षि वाल्मिकी को पहला कवि माना गया है। इनके द्वारा महाकाव्य “रामायण” की रचना की गई है। हिंदू धर्म में रामायण को सबसे पवित्र ग्रंथ माना गया है। आज के दिन ऋषि वाल्मिकी की पूजा की जाती है।
श्रीराम के परम भक्त महर्षि वाल्मीकि
आदिकवि वाल्मिकी भगवान श्री राम के परम भक्त थे। वाल्मिकी जयंती को प्रगट दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। महर्षि वाल्मीकि को सनातन धर्म के सबसे श्रेष्ठ गुरुओं में से एक माना जाता है। वाल्मिकी समाज के लोग इस दिन को धूमधाम से मनाते हैं। इस दिन कई सामाजिक और धार्मिक आयोजन होते हैं। वाल्मिकी जयंती भारतीय समाज में एकता, श्रद्धा और सामाजिक समरसता की भावना को बढ़ावा देती है। वाल्मिकी को ‘आदिकवि’ का उपनाम दिया गया है, क्योंकि उनका रचनात्मक योगदान संस्कृत साहित्य के इतिहास में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। महर्षि वाल्मिकी ने रामायण की रचनाकी जिसमें भगवान श्रीराम की जीवनी, उनकी पत्नी सीता, उनके भक्त हनुमान और अन्य चरित्रों का विस्तार से वर्णन किया गया है। यह ग्रंथ हिंदू धर्म में बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखता है और भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है। रामायण में धर्म, कर्म, नीति, राजनीति, सदाचार, सत्य और भक्ति के सिद्धांतों का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं, जो लोगों को एक उद्देश्यपूर्ण और सफल जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं।
महर्षि वाल्मिकी के जीवन से जुड़ी कथा
प्रचलित पौराणिक कथा अनुसार वाल्मिकी का असली नाम रत्नाकर था और वो एक डाकू थे। वे लूटपाट कर अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। एक बार उनकी मुलाकात पृथ्वी पर भ्रमण करने आए नारद मुनि से हुई। मुनि नारद जंगल से गुजर रहे थे तभी डाकू रत्नाकर ने उन्हें लूटने का प्रयास किया और बंदी बना लिया। इसके बाद नारद जी ने उनसे इस अपराध को करने का कारण पूछा तो डाकू रत्नाकर ने बताया कि वो ये सब अपने परिवार के लिए करते हैं। इसपर नारद मुनि ने पूछा कि जिन परिजनों के लिए तुम इस अधर्म की राह पर चल रहे हो, क्या वे तुम्हारे पाप में भागीदार बनने के लिए तैयार है। उनकी ये बात सुनकर रत्नाकर ने मुनि को एक पेड़ से बांध दिया और अपने घर पहुंचे। वहां जाकर उन्होने अपने परिवार से ये प्रश्न किया लेकिन सबने इस पाप का भागी बनने से इनकार कर दिया। इसके बाद उनकीं आंखें खुली और वापस आकर उन्होने नारद मुनि को खोल दिया। नारद मुनि ने उन्हें राम नाम जपने को कहा और बोले कि इससे उन्हें श्रीराम मिल जाएंगे। लेकिन वे इसे मरा-मरा जपने लगे। किंतु श्रीराम का नाम उल्टा भी जपा जाए तो वो सुफल ही देता है। इस शब्द का जाप करते हुए वे तपस्या में लीन हो गए। लंबे समय तक तपस्यारत रत्नाकर के शरीर पर दीपकों ने बांबी बना ली। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें दर्शन दिए और तभी ले उन्हें वाल्मिकी के नाम से जाना जाने लगा। ब्रह्माजी की प्रेरणा से ही उन्होने महाकाव्य रामायण की रचना की।
इसलिए कहा जाता है आदिकवि
ये भी कहा जाता है कि एक बार महर्षि वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे जो प्रेम और रतिक्रिया में रत था। वे सृष्टि के इस अनुपम दृश्य से अभिभूत थे लेकिन सभी एक बहेलिये ने उस पक्षी के जोड़े में से एक को तीर मार दिया। अपने साथी की मृत्यु से आहत होकर मादा पक्षी विलाप करने ली। उसे देख वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा “मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥” इसे संस्कृत भाषा का पहला श्लोक माना जाता है जिसका अर्थ थै कि जिस दुष्ट शिकारी ने प्रेम में लिप्त पक्षी का वध किया है उसे कभी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी। इसीलिए ये भी कहा जाता है कि कविता करुणा से उपजती है।
(डिस्क्लेमर : ये लेख धार्मिक आस्था और लोकमान्यताओं पर आधारित है। हम इसे लेकर कोई दावा नहीं करते हैं।)