साहित्यिकी : पढ़ते हैं मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दरोगा’

“आज शनिवार है और अपनी पढ़ने की आदत बनाए रखने के क्रम में साहित्यिकी में हम पढ़ेंगे प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद की कहानी नमक का दरोगा। इस कहानी के नायक पत्र मुंशी बंशीधर हैं। जो एक निर्धन और गरीब परिवार के सदस्य थे और परिवार के इकलौते कमाने वाले व्यक्ति भी। किस्मत से मुंशी बंशीधर को नमक विभाग मे दारोगा के पद पर नौकरी मिल जाती है। उन्हे अतिरिक्त आमदनी के बहुत से मौके मिलने लगते हैं क्योंकि उस समय भ्रष्ट लोगों के लिए नमक विभाग बहुत कमाऊ था। इस कहानी में संदेश मिलता है कि असत्य,अन्याय, भ्रष्टाचार आदि कैसा ही अँधेरा क्यों न  लेकिन सत्य और ईमानदारी की चमक कभी मद्धम नहीं पड़ती।तो आईये पढ़ते हैं ये कहानी”

नमक का दरोगा

जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे. अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से. अधिकारियों के पौ-बारह थे. पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बरकंदाज़ी करते थे. इसके दारोगा पद के लिए तो वक़ीलों का भी जी ललचाता था.
यह वह समय था जब अंगरेज़ी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे. फ़ारसी का प्राबल्य था. प्रेम की कथाएं और शृंगार रस के काव्य पढ़कर फ़ारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे.
मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फ़रहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोज़गार की खोज में निकले.
उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे. समझाने लगे,‘बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो. ऋण के बोझ से दबे हुए हैं. लड़कियां हैं, वे घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं. मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूं, न मालूम कब गिर पडूं! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख़्तार हो.
‘नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है. निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए. ऐसा काम ढूंढ़ना जहां कुछ ऊपरी आय हो. मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है. ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है. वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती. ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊं.
‘इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है. मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो. गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है. लेकिन बेगरज को दांव पर पाना ज़रा कठिन है. इन बातों को निगाह में बांध लो यह मेरी जन्मभर की कमाई है.’
इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया. वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे. ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खड़े हुए. इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था. लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए. वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था. वृद्ध मुंशीजी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाए. महाजन कुछ नरम पड़े, कलवार की आशालता लहलहाई. पड़ोसियों के हृदय में शूल उठने लगे.


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श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।