महाकवि निराला की जयंती पर सीएम मोहन यादव ने दी श्रद्धांजलि, पढ़िए उनकी कुछ प्रसिद्ध रचनाएं

निराला को छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माना जाता है। उनका उनका जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में हुआ। उनकी प्रमुख कृतियों में परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज आदि शामिल हैं । निराला ने कविताओं के अतिरिक्त कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं।

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Birth Anniversary of Mahakavi Suryakant Tripathi ‘Nirala’ : छायावादी काव्यधारा के प्रमुख कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की आज 128वीं जयंती है। उनका उनका जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) 21 फरवरी 1899 में हुआ था। उनके पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गाँव के निवासी थे। निराला को छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माना जाता है। उनकी  प्रमुख कृतियों में परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज आदि शामिल हैं । निराला ने कविताओं के अतिरिक्त कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे है। आज उनकी जयंती पर सीएम मोहन यादव ने उन्हें श्रद्धांजलि दी है। इस अवसर पर आइए पढ़ते हैं उनकी ये प्रसिद्ध कविता।

वह तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर;

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर

वह तोड़ती पत्थर।

कोई छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बँधा यौवन,

नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार :—

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू,

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गईं,

प्राय: हुई दुपहर :—

वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा—

‘मैं तोड़ती पत्थर।’

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यह सच है

यह सच है

तुमने जो दिया दान दान वह,

हिंदी के हित का अभिमान वह,

जनता का जन-ताका ज्ञान वह,

सच्चा कल्याण वह अथच है—

यह सच है!

बार बार हार हार मैं गया,

खोजा जो हार क्षार में नया, —

उड़ी धूल, तन सारा भर गया,

नहीं फूल, जीवन अविकच है—

यह सच है!

 

 

 

 


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श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।

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