”जब लोगों की जान बचाने आधी रात को दुकाने खुलवायी प्रशासन ने”

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इंदौर, डेस्क रिपोर्ट। कोरोना की लहर में इंदौर में कलेक्टर मनीष सिह के मार्गदर्शन मे जिला प्रशासन की मुस्तैदी और सजगता ने हजारों लोगों की जान बचा ली थी। यह खुलासा खुद इंदौर के अपर कलेक्टर अभय बेडेकर ने किया है। यह वाकया प्रशासन की संवेदनशीलता और कर्तव्य परायणता का अनूठा उदाहरण भी सामने लाया है।

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कोरोना का संक्रमणकाल याद कीजिए। पहली लहर जितनी खतरनाक थी, दूसरी उससे भी ज्यादा भयावह। ऑक्सीजन की कमी के चलते देश के हर हिस्से में आए दिन कोई न कोई हादसा हो रहा था। हर जिले में जिला प्रशासन के लिए कोरोना पीड़ित मरीजों के लिए ऑक्सीजन की उपलब्धता कराना हर रोज कुआं खोदने जैसी चुनौती लेकर आता था। ऐसे ही एक चुनौतीपूर्ण समय में इंदौर के कलेक्टर मनीष सिंह और उनकी टीम की संवेदनशीलता ने हजारों जानो पर मंडरा रहे खतरे को बचा लिया था। इस दौरान प्रशासन को किस कदर मशक्कत का सामना करना पड़ा, इसका खुलासा खुद इंदौर के वर्तमान अपर कलेक्टर अभय बेडकर ने अपने एक लेख में किया है।

“हर शहर की जनता का अपने शहर से आदमी रिश्ता होता है! प्रशासन में जो अफसर तैनात होते हैं, उनका शहर और जनता के बीच भी जुड़ाव होता है। समझा जाता है कि अफसर सिर्फ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने आते हैं। उनकी नियुक्ति जब तक जिस शहर में होती है, वे शहर की हर कड़ी से जुड़े होते हैं, पर जब उनका कहीं तबादला होता है वह सारी यादें वही छोड़कर अगले पड़ाव के लिए रवाना हो जाते हैं। यह स्वाभाविक है लेकिन सच नहीं! क्योंकि, उनका पूरा जीवन अलग-अलग शहरों में ऐसी ही जिम्मेदारियों को निभाते हुए ही बीतता है। यदि वे हर शहर से रिश्ता बनाएंगे तो आगे आने वाले पड़ाव से शायद इंसाफ नहीं कर सकेंगे! लेकिन अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए कई बार ऐसा काम करना पड़ता है, जिसका एहसास बाद में होता है कि वास्तव में कितना बड़ा काम था। कोरोना का हाल में ऐसी ही कुछ घटनाएं मेरे साथ भी हुई, उनमें से एक घटना का यहां जिक्र करता हूं।

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करीब 40 लाख से ज्यादा आबादी वाले इंदौर शहर को देश में तेजी से बढ़ते, फैलते और आधुनिक होते शहरों में गिना जाता है। लेकिन कोरोना संक्रमण के दौर ने इस शहर की जीवन शैली को कुचल कर रख दिया था। जब पूरा शहर महीनों तक घरों में कैद था और शहर में प्रशासन हर वक्त व्यवस्थाओं में जुटा था। कई महीनों तक हम शायद कभी पूरी रात नहीं सो सके! कुछ घंटों की ही नींद पूरी हो पाती थी। मोबाइल फोन भी बंद नहीं रखते भी ना जाने कब, कहां और कैसे हमारी जरूरत पड़ जाए। उस समय एक अजीब तरह की जिम्मेदारी का अहसास था। कोरोना काल मे प्रशासन ने संक्रमित लोगों की जान बचाने के लिए कई काम किए! पर एक ऐसी घटना भी घटी, जिसकी जानकारी कम को थी, पर इस एक घटना ने कितने लोगों की जान बचाई, यह मैं नहीं जानता।

इंदौर शहर में छोटे-बड़े और निजी सरकारी मिलाकर करीब डेढ़ सौ अस्पताल है। इस साल 2021 में जब अप्रैल-मई में कोरोना संक्रमण की दर चरम पर थी, अस्पताल के हर बिस्तर पर मरीज था। अधिकांश मरीजों को ऑक्सीजन की समस्या थी, वे सहजता से सांस नहीं ले पा रहे थे, इसलिए उन्हें लगातार ऑक्सीजन दी जा रही थी। कोरोना की दूसरी लहर के प्रारंभ में अप्रैल माह में शहर को सामान्यतः रोज 100 टन ऑक्सीजन की जरूरत थी। जबकि आम दिनों में शहर की रोजाना की जरूरत 60 टन से ज्यादा नहीं होती। इंदौर में ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली चार यूनिट है, जिनसे प्रशासन ऑक्सीजन लेकर हॉस्पिटल को सप्लाई कर रहा था। किसी तरह काम चल रहा था। लेकिन मई महीने में जब ऑक्सीजन की मांग 130 और 135 टन हो गई तो हमे कोलकाता और जामनगर से हवाई जहाज के जरिए ऑक्सीजन मंगवानी पड़ी। यह पूरी व्यवस्था आसान नहीं थी। लेकिन, लोगों की जान बचाने की कोशिश के लिए यह सब करना प्रशासन का फर्ज था। लेकिन, ईश्वर जब किसी की परीक्षा लेता है तो वह उसे हर तरह से परखता है। ऐसी कुछ स्थिति हमारी भी थी।

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बाहर से ऑक्सीजन 30 टन के टैंकर में इंदौर आती थी, फिर उसे एक बहुत बड़े बिग वर्टिकल सिलेंडर कैप्सूल जैसे टैंकर में भरा जाता था। इसके बाद उसे छोटे सिलेंडर में भरकर हॉस्पिटलों में भेजा जाता था। यही निर्धारित प्रक्रिया भी है। लेकिन अभी हमारी असली परीक्षा होना बाकी था। एक दिन जब ऑक्सीजन टैंकर से बड़े कैप्सूल में ऑक्सीजन भरी जा रही थी, तभी पता चला कि टैंकर और कैप्सूल को जोड़ने वाले कनेक्टर के बोल्ट टूट गए। मुझे लगा, यह तो सामान्य बात है! नये बोल्ट लग जाएंगे और फिर काम पूरा हो जाएगा, लेकिन, मुझे बताया गया कि बोल्ट आएंगे कहां से! लॉकडाउन के कारण शहर की सारी दुकाने तो बंद थी। यह बोल्ट कुछ खास तरह के थे जो सिर्फ ऑटोमोबाइल की दुकानों पर ही मिलना संभव था। मैंने पूरी टीम को लगा दिया कि जिस भी ऑटोमोबाइल दुकानदार को जानते हो, उससे बोलो और दुकान खुलवा कर बोल्ट लाओ लेकिन यह कोशिश कामयाब नहीं हुई क्योंकि संपर्क वाले किसी दुकानदार ने फोन नहीं उठाया। किसी का फोन बंद मिला, कुछ दुकानों के बोर्ड पर लिखे नंबरों की तलाश की गई, पर बात नहीं बनी।
आज भी उस समय को याद करता हूं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। यह शाम 4 बजे की बात है। पर, जैसे जैसे समय बीत रहा था अस्पतालों से ऑक्सीजन खत्म होने की स्थिति के फोन आने लगे। सभी ने इमरजेंसी स्टॉक का उपयोग करना शुरू कर दिया था। लेकिन उसकी भी एक सीमा थी। अंत में तय किया गया कि कुछ बड़ी ऑटोमोबाइल दुकानों के ताले तोड़कर जरूरी बोल्ट खोजे जाएं। यह गलत तरीका था, पर कई लोगों की जान बचाने के लिए कुछ भी किया जाना गलत नहीं लगा। हालात की जानकारी हमारे संवेदनशील कलेक्टर मनीष सिंह को लगी। उन्होंने मुझसे कहा कि ‘जो ठीक लगे, कीजिए। हमें हर हाल में लोगों का जीवन बचाना है।’ मैंने कुछ अफसरों को बड़ी ऑटोमोबाइल दुकानों के ताले तोड़कर बोल्ट खोजने को कहा! लेकिन अफसोस कि चार दुकानों के ताले टूटने के बाद भी बोल्ट नहीं मिला, जिसकी जरूरत थी! एक जगह बोल्ट तो मिला, पर वह पूरी तरह फिट नहीं हुआ। क्योंकि, उसका नंबर अलग था।

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मेरी आंख के सामने वह दृश्य घूमने लगे जो सोचकर आज भी कंपकंपी आ जाती है। अस्पतालों में ऑक्सीजन खत्म होने के बाद कई मरीजों की मौत होने की कल्पना भी असहनीय थी। कलेक्टर मनीष सिह जी से फिर बात की। उन्होंने हमें हालत से निपटने के लिए फ्री हैंड दिया। हमने फिर प्रयास शुरू किए और ऑक्सीजन सप्लाई करने वाले ने सुझाव दिया, क्यों ना जो काम चलाऊ बोल्ट मिले हैं उन्हें लगाया जाए और फिर कनेक्टर के जोड़ को ट्यूब काटकर बांध दिया जाए। तीन चार लोग पाइप को जोर से पकड़ कर खड़े रहें ताकि वह जोड़ निकल ना सके। यह सिर्फ एक आईडिया था, पर इसके अलावा कोई चारा भी न था। इसमें एक सबसे बड़ी रिस्क यह थी कि यदि जोड़ का कनेक्शन निकल गया तो एक झटके में 30 टन ऑक्सीजन हवा में उड़ जाएगी। हमने तय किया कि अब यही उपाय बचा है तो यही किया जाए, जो होगा देखा जाएगा।
उस समय लोगों की जान बचाने से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं लगा! कैप्सूल और टैंकर को कनेक्ट किया गया। जितने बोल्ट कसे जा सके, उन्हें कसा गया, पूरे जोड़ को ट्यूब से बांधा गया। तीन चार लोगों को इस जोड़ को पकड़कर रखने और जहां तक संभव हो सके, ना छोड़ने की जिम्मेदारी दी गई। मैंने मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करना शुरू कर दिया। सारे इंतजाम करके जब टैंकर से ऑक्सीजन छोड़ी गई तो वह आसानी से बिना लीकेज के कैप्सूल में शिफ्ट होने लगी। जब तक ऑक्सीजन शिफ्ट होती रही, वहां मौजूद हर व्यक्ति के चेहरे पर तनाव साफ झलकता रहा! लेकिन यह वास्तव में एक चमत्कारी ही था कि यह प्रयोग सफल रहा। टैंकर का बाल्व खोलने पर ऑक्सीजन जिस स्पीड से कैप्सूल में जाती है, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती, मुझे आत्मीय संतोष हुआ कि आज हमारी कोशिश से हजारों मरीजों की जान बच गई! शाम 4 से 5.30 तक के डेढ़ घंटे का समय मैंने और मेरे साथ वालों ने किस तरह से गुजारा, यह मैं ही जानता हूं। उस दिन यह एहसास हुआ कि हमारा जीवन तभी सफल हो सकता है, जब हम किसी के काम आए। यदि हम अपनी कोशिशों से किसी जीवन को बचा सकते हैं, तो इससे बड़ा पुण्य का काम कोई हो ही नहीं सकता। मेरे लिए यह घटना कभी ना भूलने वाली याद बन गई।


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Harpreet Kaur

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