MP Breaking News
Fri, Dec 19, 2025

Sengol: नए संसद भवन में स्थापित होगा भारत का राजदंड “सेंगोल”, यहां जानें इतिहास

Written by:Diksha Bhanupriy
Published:
Sengol: नए संसद भवन में स्थापित होगा भारत का राजदंड “सेंगोल”, यहां जानें इतिहास

History Of Sengol: 28 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए संसद भवन का उद्घाटन करने वाले हैं। इस दौरान वहां पर 60 हजार श्रम योगियों का सम्मान किया जाएगा, जिन्होंने संसद भवन के निर्माण में अपना अभूतपूर्व सहयोग दिया है। नए संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर एक ऐतिहासिक भारतीय परंपरा भी फिर से पुनर्जीवित होने वाली है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस भवन में सेंगोल यानी राजदंड की स्थापना होगी, जिसे संपदा से संपन्न होने का कारक माना जाता है।

जानकारी के मुताबिक तमिलनाडु से आए कुछ विद्वान पीएम मोदी को यह राजदंड देंगे या फिर इसे संसद में स्थापित कर दिया जाएगा। इसे स्पीकर की कुर्सी के पास रखा जाएगा, इसके पहले अब तक ये इलाहाबाद के एक संग्रहालय में रखा हुआ था। चलिए आज आपको बताते हैं कि इसका इतिहास किया है और इसका नाम सेंगोल कैसे पड़ा।

 

सेंगोल का इतिहास

सेंगोल का भारतीय इतिहास और आजादी में एक महत्वपूर्ण स्थान है। सबसे पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस पवित्र सेंगोल को तमिलनाडु से मंगवा कर अंग्रेजों से स्वीकार किया था। ऐसा करने का तात्पर्य यह साबित करना था कि पारंपरिक तरीके से सत्ता भारतीयों के हाथों आ चुकी है। सत्ता हस्तांतरण के दौरान नेहरू ने अपने सहयोगियों से चर्चा करने के बाद इस योजना को बनाया गया था।

कैसे पड़ा Sengol नाम

इस राजदंड का नाम सेंगोल संस्कृत के शब्द संकु से बना है जिसका अर्थ शंख होता है। शंख हिंदू धर्म की सबसे पवित्र वस्तु है और इसका इस्तेमाल संप्रभुता के प्रतीक के तौर पर किया जाता है और आज भी कोई शुभ काम होने पर इसका इस्तेमाल होता है। इस तरह भारतीय सम्राट की शक्ति और अधिकार के प्रतीक इस चिन्ह को सेंगोल नाम दिया गया। यह सोने चांदी से बना होता है और राजा महाराजाओं के समय से कीमती पत्थरों से सजाया जाता था। सम्राट औपचारिक अवसरों पर अपने अधिकारों को दर्शाने के लिए इसका इस्तेमाल किया करते थे।

चोल साम्राज्य से है नाता

सेंगोल से जुड़ी जो जानकारी मिलती है उसके मुताबिक ये चोल साम्राज्य से जुड़ा हुआ है। बताया जाता है कि यह जिसे भी प्राप्त होता है उससे न्यायपूर्ण और निष्पक्ष शासन करने की उम्मीद की जाती है। चोल शासन के दौरान राजाओं के राज्य अभिषेक और अन्य समारोह में इसका विशेष महत्व माना जाता था। इसे अधिकार का एक पवित्र प्रतीक माना जाता था जिसे एक राजा दूसरे राजा को सत्ता हस्तांतरण के दौरान सौंपता था। वैसे भी चोल राजवंश वास्तुकला, कला, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण में अपने योगदान के लिए पहचाना जाता है।

जब तमिलनाडु के विद्वानों ने धार्मिक अनुष्ठान कर इससे आजादी के समय नेहरू जी को सौंपा था तब इसका मीडिया कवरेज किया गया था और यह सभी की नजरों में आया था। हालांकि, 1947 के बाद इसे कहीं ना कहीं तवज्जो नहीं दी गई। 1971 में कुछ विद्वानों ने इसका जिक्र किया था और फिर भारत सरकार ने 2021-22 में इसकी चर्चा की और अब 28 मई को वह विद्वान भी संसद भवन में इसकी स्थापना के वक्त मौजूद रहेंगे जो पंडित नेहरू को इस सौंपते समय मौजूद थे।

राजदंड का प्राचीन इतिहास

भारत में राजदंड का इतिहास काफी पुराना है। सबसे पहले इसका उपयोग 322 से 185 ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य द्वारा किया गया था। उन्होंने इसे अपने विशाल साम्राज्य पर अधिकार दर्शाने के लिए उपयोग किया था। इसके बाद 320 से लेकर 550 ईस्वी तक गुप्त साम्राज्य, 907 से 1310 ईस्वी तक चोल साम्राज्य और 1336 से 1646 ईस्वी तक विजयनगर साम्राज्य ने सेंगोल का इस्तेमाल किया।

1526 से 1857 तक आखिरी बार इस राजदंड का मुगल बादशाहों द्वारा इस्तेमाल किया गया। इतना ही नहीं 1600 से 1858 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी इसे भारत पर अपना अधिकार दिखाने के लिए इस्तेमाल किया था।

1947 में जब से इसे भारत सरकार द्वारा ब्रिटिशर्स से लिया गया उसके बाद इसका उपयोग नहीं हुआ है। हालांकि, ये आज भी शक्ति और अधिकार का प्रतीक है और भारत के समृद्ध इतिहास की गाथा अपने अंदर समेटे हुए हैं।

इलाहबाद संग्रहालय में था सुरक्षित

इलाहाबाद के संग्रहालय में रखे हुए इस सेंगोल को अब तक पंडित नेहरू की गोल्डन छड़ी के रूप में जाना जाता था। कुछ दिनों पहले चेन्नई की एक गोल्डन कोटिंग कंपनी ने संग्रहालय को इसके बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी। कंपनी ने दावा किया है कि यह कोई साधारण सी स्टिक नहीं है बल्कि सत्ता हस्तांतरण का चिन्ह राजदंड है। यह भी सामने आया है कि कंपनी वीबीजे के वंशजों ने 1947 में भारत के अंतिम वायसराय के आग्रह पर इसे तैयार किया था।