उगते सूर्य को अर्ध्य देकर व्रतियों ने किया पूजन,चार दिवसीय छठ पर्व का समापन

Gaurav Sharma
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बालाघाट, सुनील कोरे। संतान प्राप्ति और परिवार की सुख-समृद्धि एवं शांति के लिए मनाये जाने वाले छठ पर्व पर आज नगर के मोती तालाब में व्रतियों द्वारा उगते सूर्य को अर्ध्य देकर पूजन किया गया। जिसके साथ ही चार दिवसीय छठ पर्व का समापन हो गया।

आज छठ पर्व के चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्ध्य दिया गया। सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा के लिए पहुंचे थे। व्रती लोगों द्वारा पूरब की ओर मुंहकर पानी में खड़े होकर सूर्योपासना की गई। पूजा-अर्चना समाप्तोपरान्त घाट का पूजन किया और यहां उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरण किया।

गौरतलब है कि छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिन्दू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है। छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है।

इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते है। प्रातःकाल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्ध्य देकर दोनों का नमन किया जाता है। भारत में छठ सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है। मूलतः सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं।

छठ व्रत के संबन्ध में अनेक कथायें प्रचलित हैं उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये, तब श्री कृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को उनका राजपाट वापस मिला। लोक परंपरा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। छठ पर्व, छठ या षष्‍ठी पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है।

छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह छठ व्रत अधिकतर महिलाओं द्वारा किया जाता है। कुछ पुरुष भी इस व्रत रखते हैं। चार दिनों के इस व्रत में व्रति को लगातार उपवास करना होता है।ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलायें यह व्रत रखती हैं। पुरुष भी पूरी निष्ठा से अपने मनोवांछित कार्य को सफल होने के लिए व्रत रखते हैं।

छठ पर्व का पहला दिन जिसे ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है, उसकी शुरुआत कार्तिक महीने के चतुर्थी कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होता है। व्रती अपने नजदीक में स्थित गंगा नदी, गंगा की सहायक नदी या तालाब में जाकर स्नान करते है। व्रती इस दिन सिर्फ एक बार ही खाना खाते है। छठ पर्व का दूसरा दिन जिसे खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है, जो कार्तिक महीने के पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखते है। छठ पर्व का तीसरा दिन जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है, जो कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है।

पूरे दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारियां करते है। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद बनाया जाता है। पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल, पांच प्रकार के फल और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का पुरुष अपने हाथो से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है। छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलाये छठ का गीत गाते हुए जाती है। नदी या तालाब के किनारे जाकर महिलाये घर के किसी सदस्य द्वारा बनाये गए चबूतरे पर बैठती है। नदी से मिटटी निकाल कर छठ माता का जो चौरा बना रहता है उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढाते है और दीप जलाते है। सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते है और डूबते हुए सूर्य देव को अर्ध्य देकर पांच बार परिक्रमा करते है।


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पत्रकारिता पेशा नहीं ज़िम्मेदारी है और जब बात ज़िम्मेदारी की होती है तब ईमानदारी और जवाबदारी से दूरी बनाना असंभव हो जाता है। एक पत्रकार की जवाबदारी समाज के लिए उतनी ही आवश्यक होती है जितनी परिवार के लिए क्यूंकि समाज का हर वर्ग हर शख्स पत्रकार पर आंख बंद कर उस तरह ही भरोसा करता है जितना एक परिवार का सदस्य करता है। पत्रकारिता मनुष्य को समाज के हर परिवेश हर घटनाक्रम से अवगत कराती है, यह इतनी व्यापक है कि जीवन का कोई भी पक्ष इससे अछूता नहीं है। यह समाज की विकृतियों का पर्दाफाश कर उन्हे नष्ट करने में हर वर्ग की मदद करती है।इसलिए पं. कमलापति त्रिपाठी ने लिखा है कि," ज्ञान और विज्ञान, दर्शन और साहित्य, कला और कारीगरी, राजनीति और अर्थनीति, समाजशास्त्र और इतिहास, संघर्ष तथा क्रांति, उत्थान और पतन, निर्माण और विनाश, प्रगति और दुर्गति के छोटे-बड़े प्रवाहों को प्रतिबिंबित करने में पत्रकारिता के समान दूसरा कौन सफल हो सकता है।

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