ग्वालियर, अतुल सक्सेना। पिछले लंबे समय से मप्र की राजनीति को प्रभावित करने वाले और चुनावों में हमेशा फ्रंटफुट पर रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह का इस बार बैकफुट पर रहना समझ से परे है । चुनावी परिद्रश्य से दिग्विजय सिंह का गायब रहना राजनैतिक गलियारों में कई तरह की चर्चाओं को जन्म दे रहा है। लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या ये हाई कमान का निर्देश है या पार्टी को किसी बात का डर है या फिर कोई मजबूरी है।
मध्यप्रदेश की राजनीति के इतिहास पर यदि नजर डाले तो पिछले करीब तीन दशक में कांग्रेस के दो नेता ऐसे रहे जिन्होंने प्रदेश की राजनीति को बहुत प्रभावित किया। एक पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और दूसरे ज्योतिरादित्य सिंधिया। प्रदेश सहित ग्वालियर चंबल संभाग में दोनों नेताओं का जबरदस्त होल्ड था। एक महाराजा तो दूसरा राजा था। अंचल में दोनों के ही गुट के नेता थे। कांग्रेस का तीसरा कोई भी गुट ग्वालियर चंबल में प्रभावी नहीं था। कमलनाथ, सुरेश पचौरी जैसे बड़े नेताओं के भी एक दो नेता ही क्षेत्र में थे लेकिन अंचल में उन्हें उतनी तबज्जो नहीं मिलती थी जितनी सिंधिया और दिग्विजय गुट के नेताओं को मिलती थी।
साल 2018 के विधानसभा चुनाव में जब चुनावी कैंपेन शुरू हुआ तो पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया का चेहरा आगे रखकर वोट मांगे, दिग्विजय सिंह सहित अन्य बड़े नेताओं ने भी जी तोड़ मेहनत की, सिंधिया का प्रभाव ये रहा कि ग्वालियर चंबल अंचल की 34 में से 26 सीट कांग्रेस ने जीत ली और 15 साल बाद सरकार बना ली। लेकिन यहाँ पार्टी ने बड़ा फैसला लिया कि जिसके चेहरे पर वोट मांगे उसे मुख्यमंत्री ना बनाते हुए केंद्र के राजनीति में सक्रिय रहने वाले कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया जिसके बाद पार्टी में असंतोष का जन्म हो गया।
15 महीने बाद ही सिंधिया ने अपने 22 खिलाड़ियों के साथ पाला बदला और पार्टी छोड़ दी जिससे कमलनाथ सरकार गिर गई। सरकार को बचाने के लिए दिग्विजय सिंह ने बहुत मेहनत की वे बैंगलौर भी गए, धरना दिया लेकिन सफलता नहीं मिली, सरकार गिर गई और सिंधिया अपने समर्थकों के साथ भाजपा में चले गए। सरकार बचाने में दिग्विजय सिंह जैसे बड़े और चाणक्य कहे जाने वाले नेता के प्रयास फेल होने के बाद कमलनाथ ने एक बयान में कहा कि मैंने दिग्विजय सिंह पर विश्वास कर भूल की। और यहीं से दोनों के बीच खटास शुरू हो गई। हालांकि इस खटास को कभी दोनों नेताओं ने उजागर नहीं होने दिया लेकिन दिग्विजय सिंह के समर्थकों के ऐसा मानना है कि प्रदेश के लिए समर्पित और बड़े नेता पर कमलनाथ को आरोप लगाने से पहले सोचना था।
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टिकट वितरण में दिग्विजय को कम तबज्जो
सरकार गिरने के बाद जिस तरह से कमलनाथ ने एकला चलो की नीति अपनाई वो टिकट वितरण में भी दिखाई दी। टिकट वितरण को देखकर साफ कहा जा सकता है कि इसमें कमलनाथ और उनके कुछ खास सिपहसालारों को ही तबज्जो दी गई। दिग्विजय सिंह जैसे बड़े नेता की राय को भी बहुत तबज्जो नहीं दी गई। चुनाव प्रचार के लिए भी जिस तरह से कमलनाथ अकेले ही जिम्मेदारी संभाल रहे हैं उसके बाद से दिग्विजय सिंह ने चुनावों से खुद को दूर कर लिया। वे अभी तक प्रदेश के 28 सीटों पर कहीं दिखाई नहीं दिये।
“बंटाधार” का मुद्दा कहीं तेज ना हो जाए
दिग्विजय सिंह के साथ “बंटाधार” की छवि भी चलती है। कांग्रेस बिकाऊ टिकाऊ और गद्दार जैसे मुद्दों को लेकर भाजपा और सिंधिया पर हमलावर है तो भाजपा विकास और विश्वास की बात कर रही है। और अब नंगा भूखा जैसा नया मुद्दा भी भाजपा को मिल गया है। बीच बीच में शिवराज सिंह चौहान दिग्विजय के शासन की या दिलाकर “बंटाधार” कहने से नहीं चूक रहे। संभव है कांग्रेस दिग्विजय सिंह को इसीलिए उप चुनाव से दूर रखे है कि कहीं शिवराज सिंह और उनकी पार्टी “बंटाधार” का मुद्दा नहीं उछाल दे। क्योंकि कमलनाथ केवल 15 महीने की अपनी सरकार की उपलब्धियां लेकर ही मैदान में उतरे हैं। वे किसान कर्जमाफी, बिजली का बिल माफ़ी, गौशाला निर्माण जैसे मुद्दों को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं। वे नहीं चाहते कि दिग्विजय सिंह के शासन काल की बातें बाहर आये और भाजपा को इसका लाभ मिले।
बहरहाल ये कांग्रेस की रणनीति है या दिग्विजय की बंटाधार वाली छवि का भय, ये कहना मुश्किल है लेकिन कांग्रेस का दिग्विजय जैसे बड़े नेता को उपचुनावों से दूर रखना कहीं नुकसान का सौदा ना हो जाए अब चुनावों पर इसका क्या असर होगा ये तो नतीजे ही बतायेंगे।