Children’s Day 2022 : आखिर क्यूं अब बच्चे, बच्चे से नहीं लगते

भोपाल, गौरव शर्मा। आपने अक्सर लोगों को कहते हुए सुना होगा कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं। पर क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों कहा जाता है? ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि बच्चे निश्चल, निष्कपट और कोमल हृदय के होते हैं। वे ना ही झूठ बोलना जानते हैं ना हीछल फरेब करना जानते हैं। उन्हें जो प्यार दे वे उसी के हो जाते हैं। निश्चित तौर पर बदलती सदी और बदलते परिवेश के साथ हर चीज़ में बदलाव आता है, लेकिन वह बदलाव कितना सही है इसका आंकलन करने के लिए हमें वर्तमान को भूत से मिलाकर देखना होगा।

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जिन उंगलियों से एक अबोध बालक को चिड़िया उड़ खिलाना सिखाया जाना चाहिए वह उंगलियां यूट्यूब पर पेपा पिग चलाने लगी हैं। इस बात को मां-बाप भी बड़े ही गर्व से लोगों को बताते हैं कि हमारा बच्चा तो मोबाइल पर सब चला लेता है। इसका नतीजा जो आज देखा जा रहा है वह है छोटी-छोटी आंखों पर बड़े-बड़े नंबरों के चश्मे। नासमझ बालक का बाहरी दुनिया से यह संपर्क उसे वह सभी जानकारियां प्रदान करता है जो ना तो उसकी उम्र के लायक हैं और ना ही उसे समझ आती है। समझ और नासमझ के खेल में बच्चा ना तो बच्चा ही रह पाता है और बड़ा तो वह है ही नहीं। अब हमें समझना होगा कि आखिर क्या संभव कारण है जिस वजह से यह बदलाव हमें देखने को मिल रहे हैं।

छोटे परिवार
कहते हैं रिश्तो की डोर सबसे मजबूत होती है। यह डोर अपनों को हमेशा बांधे रहती है उन्हें ना कभी टूटने देती है ना ही कभी खोने देती है। रिश्ते उस पेड़ की टहनी की तरह होते हैं जिसमें बालक रूपी पक्षी कभी इस टहनी पर बैठता है कभी उस टहनी पर बैठता है और हर टहनी की परवरिश तले बड़ा होता है। दादा दादी–नाना नानी का स्नेह ,चाचा–बुआओं का दुलार बच्चे को इस दुनिया में कभी अकेला महसूस ही नहीं होने देता। दस हाथ और दसों हाथ में अपने राजदुलारे के लिए निवाला उस बच्चे को कभी भूखा नहीं रहने देता। एक का गुस्सा और दूसरे का प्यार उस बच्चे को कभी अकेला नहीं महसूस होने देता।

लेकिन यह सब चीजें आज परिवारों से गायब हो चुकी है। दो वक्त की रोटी की जुगत में बेटा अपने मां बाप से सात समंदर पार जा चुका है। छोटा बच्चा दादी दादा को जानता तो है लेकिन सिर्फ वीडियो कॉल पर। अब ऐसे में बच्चे की दुनिया केवल मां-बाप के इर्द-गिर्द घूमती है, जो पहले से ही व्यस्त हैं। और इस वजह से मां-बाप की जिम्मेदारियां भी 100 गुना से ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि उनके बच्चे के पास बात करने के लिए अब सिर्फ वही है। ऐसे में या तो मां-बाप बच्चे को हाथ में मोबाइल पकड़ा देते हैं जिससे वह शांतिपूर्ण तरीके से अपना काम कर सकें और या फिर धीरे-धीरे बच्चे और मां-बाप में दूरियां बढ़ती जाती है। अब बच्चा बचपन से ही अकेला महसूस करने लगता है जिससे कई बार उसके अंदर मां-बाप के प्रति नकारात्मक भावनाएं भी पैदा होने लगती है। वह उन सभी बातों को सोचने लगता है जो उसकी उम्र के हिसाब से बहुत बड़ी है। इसके बाद वह बच्चा धीरे-धीरे अपना बचपन की सरलता सहजता खोकर गंभीर प्रवृत्ति या उत्पाती प्रवृत्ति का हो जाता है।

स्कूलों का गिरता स्तर
कहते है जो बच्चा घर में नहीं सीखता वह स्कूल में जाकर सीखता है। पर पिछले कुछ सालों में स्कूली शिक्षा और पद्धतियों में जो अंतर आए हैं वह निश्चित तौर पर बच्चों के लिए सकारात्मक नहीं है। अनुशासन सिखाने वाले स्कूल आज केवल पैसा कमाने की मशीन बन चुके हैं। एक जमाना था जब मां-बाप बच्चे को स्कूल छोड़ने जाते थे और टीचर से कहकर आते थे हड्डी हड्डी हमारी खाल खाल तुम्हारी। निश्चित तौर पर यह बात सुनने में थोड़ी अजीब लगती थी पर इसका जो प्रभाव होता था वह बच्चे पर इतना गहरा रहता था कि बच्चा स्कूल में बदतमीजी करने से पहले सौ बार सोचता था। कहते हैं मार से बुरा डर आंखों का होता है और पहले के शिक्षकों का डर आंखों का ही हुआ करता था। लेकिन फिर नए नियम आए जिनमें कहा गया कि अगर कोई शिक्षक बच्चों को डांटता है तो उस पर कार्रवाई की जाएगी। बच्चों ने इस बात का फायदा उठाना शुरू किया उद्दंडता शुरू की और शिक्षकों ने उन्हें इग्नोर करना शुरू किया। शिक्षक मानने लगे कि हमारा काम सिर्फ पढ़ाना है तुम्हारा आचरण और विचार सुधारना नहीं। जिसके परिणाम स्वरूप अनुशासन प्रदान करने की फैक्ट्री विद्यालय धीरे-धीरे अनुशासनहीनता का केंद्र बनने लगे। इन केंद्रों से निकलने वाले बच्चे फूहड़ बदतमीज और अनुशासन हीन होने लगे। इसका सीधा उदाहरण सड़कों पर तेज़ गति में वाहन चलाते बच्चे, गालियां देते बच्चे, बड़े छोटे का लिहाज भूल चुके बच्चों के रूप में देखा जा सकता है।

इसके अलावा अनुशासनहीन होने का जो सबसे बड़ा कारण आजकल के बच्चों में देखा जा रहा है वह है मां बाप का अपने बच्चे के प्रति अपार प्रेम और ग़लतियों को सुधारने के बजाय नज़रअंदाज़ करना। एक समय था जब बच्चों की लड़ाइयां केवल बच्चों की हुआ करती थीं पर आज जब दो बच्चों में लड़ाई होती है तो उनके मां-बाप को भी आप आपस में बदतमीजी करता हुआ बड़ी ही आसानी से देख सकते हैं। मां बाप बच्चों को हर दुख तकलीफ से बचाने के चक्कर में कमजोर करते जा रहे हैं। मां बाप उनकी हर छोटी-छोटी ख्वाहिशें पूरी करते जा रहे हैं। मां-बाप बच्चों को मजबूत ना होने की सभी वजह प्रदान करते जा रहे हैं। जिसके फलस्वरूप आज बढ़ती आत्महत्याओं की संख्या देखी जा सकती है। अधिकांश बच्चे ना तो अब दबाव झेल पाते हैं, ना हीं विरोध झेल पाते हैं और धन्यवाद हो मोबाइल और टीवी को जिनमें इन दोनों बातों के परिणाम स्वरूप जिस तरह दिखाया जाता है कि इंसान ने आत्महत्या कर ली उसी तरह आज पांच, छः और सात साल के बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। लाड़ दुलार अपनी जगह ठीक है लेकिन लाड़ दुलार के साथ अपने बच्चे को अच्छी परवरिश देना उसे हर परिस्थिति को झेलना सिखाना और उसे मजबूत बनाना भी जरूरी है।

क्योंकि आप अब छोटे परिवार में रहते हैं तो उन्हें पर्याप्त समय देना भी जरूरी है समय-समय पर जानकारी लेना भी जरूरी है, डांट भी जरूरी है, मार भी जरूरी है,लाड भी जरूरी है, दुलार भी जरूरी है। उदाहरण के तौर पर जिस लोहे से तलवार बनती है उसे तपाना भी पड़ता है, पीट-पीटकर एक निश्चित आकार भी देना पड़ता है तभी वह युद्ध लड़ने के काम आती है वरना लोहा तो कबाड़े की दुकान पर भी पड़ा रहता है।


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श्रुति कुशवाहा

श्रुति कुशवाहा

2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। 2001 से 2013 तक ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज दिल्ली-भोपाल, लाइव इंडिया मुंबई में कार्य अनुभव। साहित्य पठन-पाठन में विशेष रूचि।

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