Sahityiki : जैसे जैसे हम डिजिटल हो रहे हैं..हमारे हाथों के किताब छूटती जा रही है। समय की भागमभाग ने हमारी पढ़ने की आदत पर बहुत असर डाला है। लेकिन पढ़ना हमें एक बेहतर मनुष्य बनाता है और हमारे सकारात्मक विकास में सहायक होता है। इसीलिए हर शनिवार हम आपके लिए इस श्रृंखला में एक कहानी लेकर आते हैं। आज हम लाए हैं कमलेश्वर की एक कहानी।
आधी दुनिया
जहाज छूटने में कुछ देर थी। जेटी के कगार पर बैठे हुए पक्षी अजनबियों की तरह इधर-उधर देख रहे थे। जैसे वे उड़ने के लिए कतई तैयार न हों। खौलते पानी के बुलबुलों की तरह उनमें से एक-दो धीरे-से कुदकते थे और फिर वहाँ समा जाते थे। कहीं कोई हड़बड़ी नहीं थी। पास कण्ट्रोल का गेट अभी खुला हुआ था। ट्रेन जहाज में लद चुकी थी। बेड़ियों की तरह पड़ी जंजीरें उसे जकड़े हुए थीं। पास कण्ट्रोल के इर्द-गिर्द कुछ लोग रिक्त-से खड़े थे।
दोपहर हो चुकी थी पर सब कुछ बुझा-बुझा-सा था। सूरज पर बादल नहीं थे। ऊपर तक छाया हुआ कोहरा था। सूरज जिलेटिन के गोल टुकड़े की तरह सिर्फ दिखाई दे रहा था। ठण्डा-ठण्डा। डोवर की सीधी सपाट चट्टानें चुपचाप खड़ी थीं। नम खड़िया का लेप-सा लगाये। चट्टानों पर उगी पतली घास समुद्री हवा से धीरे- धीरे काँप रही थी। कारों की आखिरी कतार भी अपना चक्कर काटकर अपरडेक गेराज में समा चुकी थी। अपरडेक गेराज में कोई खिड़की नहीं थी। वहाँ रुकना मुश्किल था। कोई रुक भी जाए तो साढ़े तीन घण्टे क्या करे। आखिर हम दोनों कार से उतर आये। अब उधर जाकर किसी खिड़की के पास बैठे-बैठे समुद्र देखते रहने के सिवा कोई चारा नहीं था।
लन्दन से डोवर तक हम इतनी बातें कर चुके थे कि अब कोई खास बात करने को नहीं रह गयी थी। उसे जाम्बिया में छूटी प्रेमिका की याद भी सता रही थी। नीग्रो प्रेमिका के बारे में जब भी वह बात शुरू करता तो काफी बनावटी लगता था, पर सात-आठ वाक्यों के बाद जब वह खामोश हो जाता, तो लगता था, उसकी बातों में ढोंग नहीं है।
गेराज से हम अभी ऊपर पहुँचे ही थे कि लगा जहाज पानी पर धीरे-से खिसककर फिसलने लगा है। दूसरे ही क्षण लगा कि जेटी पर बैठे पक्षियों की कतार पीछे खिसक रही है। हम खड़े हैं, और वह ठिगनी फैली इमारत, जेटी और डोवर बन्दरगाह की चट्टानों वाली विराट दीवार पीछे खिसकती जा रही है।
हमें भूख लग आयी थी। रेस्तरां में आने से पहले पैसे बदल लेना जरूरी था। असल में मार्था मुझे वहीं मिली थी। बैंक काउण्टर के पास क्यू में खड़ी। उसे भी पैसे बदलने थे। अगर उसके साथ वे तीन खासे डरावने कुत्ते न होते तो शायद हमारी बात भी शुरू नहीं होती।
एक हाथ में दस्ताना पहने, वह तीनों की जंजीर पकड़े हुए थी। बहुत कसकर नहीं। मैं क्यू में खड़ा हुआ तो कुछ फासला छोड़कर। वह मेरी दिक्कत समझ गयी थी। टूटी-फूटी अँग्रेजी में उसने कहा था, डरो मत, पास आ जाओ। ये बड़े मासूम हैं।
मैं कुछ पास चला गया था। क्यू में इन्तजार करते-करते वह बोली, “अपने देश जा रहे हो?”
“नहीं, अभी तो बेल्ज़ियम। फिर आगे।” मैंने कहा था।
“बेल्जियम में रुकोगे?’ उसने पूछा तो मुझे लगा, वक्त काटने की यह मामूली बातें हैं। उसके ओठ यदि बेहद सुन्दर न होते तो शायद मैं फालतू बातों के इस झमेले में न पड़ता।
“हाँ, रुकूँगा।’” मैंने कहा।
“चैट्रिस लुमुम्बा के हत्यारों के देश में तुम रुकोगे? ऐसी क्या जरूरत पड़ गयी है। पेट की खातिर ?’” वह खूबसूरत ओठों से अभी तक देख रही थी। इस बार मैंने उसकी आँखें देखीं। वे भी बहुत सुन्दर थीं। वह समझ गयी थी कि मैं कोई भटकता हुआ एशियावासी हूँ जो रोज़ी-रोटी के लिए अपने विचारों को रूमाल में बाँधकर भटक रहा है।
“नहीं, मैं शायद उन लोगों को बता सकूँ कि क्रान्तियाँ अभी भी होती हैं…” मैं कह ही रहा था कि उसने बात बीच में ही काट दी,” लेकिन तुम वियतनामी नहीं हो। नहीं हो न?”
“इससे क्या फर्क पड़ता है! मैं बांग्लादेश का हो सकता हूँ।”
हमारी इस दिलचस्प बात का सिलसिला जारी रहता। पर एक्सचेंज काउण्टर का बाबू ताख जैसी खिड़की पर थाप देकर मार्था को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। वह सचेत होकर धीरे-से मुस्करायी और अपने पैसे बदलने लगी! उसके कुत्ते अब अशान्त हो रहे थे। वे इस बुरी तरह उसे खींच रहे थे कि डिवाइडर की छड़ भी उसके हाथ से छूटी जा रही थी। सँभलते हुए उसने कहा, ”मेरा पैसा तुम ले लो। मैं अभी आयी।”
अपने पैसे बदलवाकर मैं प्रतीक्षा करता रहा। वह कुत्तों को लिये हुए पतली गैलरी से न जाने कहाँ गायब हो गयी। मैं सिगरेट सुलगाकर कुछ देर इन्तजार करता रहा। उसका कहीं पता नहीं था। पास के काउण्टर से औरतें सस्ते इत्र और आदमी सिगार-सिगरेटें खरीद रहे थे। मैं पतली गैलरी से होता हुआ रेस्तराँ का चक्कर काटकर वहीं वापस आ गया। वह अब भी नहीं आयी थी। अजीब-सी उलझन और भूख में फंसा हुआ मैं करेंसी गिनता रहा और हिसाब लगाता रहा कि दस पाउण्ड के कितने फ्रैंक मुझे मिले हैं। इतने में वह आ गयी। हँसते हुए उसने माफी माँगी और बोली, “मेरे पति सन-डेक पर चले गये थे। कुत्तों को उनके पास छोड़कर उतरी तो रास्ता भूल गयी। आओ बियर पिएँ।”
फिर उसी पतली गैलरी से गुजरते हुए हमने औपचारिक परिचय की रस्म पूरी कर ली थी। मार्था को मालूम हो गया था कि मैं भारतीय हूँ और मुझे कि परिचय को मधुर बनाने के लिए लकीरी बात मैंने कही, ”ग्रीक बहुत अच्छे होते हैं। तुम्हारी संस्कृति और सभ्यता।’”
“बकवास मत करो!’” उसने एकदम कहा तो मैं अचकचा गया था, ”ईश्वर के लिए बकवास मत करो। किसी के लिए यह क्यों जरूरी हो कि वह इन फिकरों से बोलता रहे। तुम जैसे लोगों के लिए तो यह कतई जरूरी नहीं होना चाहिए।”
“तुम्हें कैसे मालूम कि मैं ‘तुम जैसे लोगों’ में हूँ?’” मैंने पूछा।
“जुपिलर पिओगे या… ” वह बीयर के बारे में पूछ रही थी।
“मुझे नहीं मालूम कौन-सी पीनी चाहिए।”
“तब जुपिलर ही पिओ। उसके बाद सोल खाएँगे।”
‘सोल ।’
“मछली । तली हुई। तुम पसन्द करोगे?”
हम बीयर के गिलास लेकर हिलती मेजों के पास आकर बैठ गये। खिड़की से समुद्र झाँक रहा था! मार्था के ओंठ अब भीगकर और खूबसूरत हो गये थे। उसने बीयर का गिलास खाँचे में फँसाकर रख दिया, फिर उसने मुझे गौर से देखा। वह शायद कुछ बात शुरू करना चाहती थी। मुझे माइकेल का ध्यान आ रहा था जो इतनी देर से अकेला छूट गया था। शायद वह वहीं खिड़की के पास बैठा अपनी नीग्रो प्रेमिका के ख्यालों में डूबा होगा या समुद्र को देखता-देखता सो गया होगा। तीसरी बात होती तो वह खोजता हुआ बार की तरफ ही आया होता। जहाज इतना बड़ा नहीं था कि आदमी खो जाए। असल में तो वह खड़ी बोट थी। जो रोज डोवर से ओस्टेण्ड तक जाती थी।
मार्था यह जानकर कि मैं खामोश रहना चाहता हूँ–मोटे और भद्दे शीशे की खिड़की के पार काँपते समुद्र को देख रही थी। खिड़की मेजपोश की शक्ल में बनी थी। लोहे का फ्रेम बड़े भद्दे बोल्टुओं से कसा था। बोल्टू भी पुराने थे। एकाएक वे बड़े भद्दे से बोल्टू मेरी चेतना में गड़ने लगे। नीचे मेज का पाया भी जिस जीभ से सधा था उस जीभ में भी बोल्टू गड़ा हुआ था।
सब कुछ सिर्फ धीरे-धीरे काँप रहा था। समुद्र मेज, बर बर की अलमारियाँ, बोतलें, गिलास, फर्श पर पड़ा हुआ रैपर, खाँचे में फँसा हुआ मार्था का गिलास, कि तभी मेजपोश की तरह तनी और जकड़ी खिड़की के फ्रेम में एक पक्षी आ गया था। उसके पंख यदि एक जयपूर्ण अबाध गति से हिल न रहे होते, तो शक हो सकता था कि वह उसी खिड़की में चिपका हुआ है। मार्था उसे देखते-देखते उठी और मेरी बगल में आकर बैठ गयी। दूर पड़ते गिलास को उठाकर मैंने उसके हाथों में थमा दिया। एक पूरा घूँट लेकर उसने पक्षी की तरफ इशारा किया। धीरे से बोली, “यह अकेला पक्षी डोवर के साथ-साथ उड़ता हुआ आ रहा है। कितना अजीब है न! अकेली आत्मा की तरह उड़ता हुआ यह पक्षी… ”
मुझे लगा वह भावुक हो रही है। मैंने यों ही कहा, “पोर्ट पर तुम्हें कोई छोड़ने आया होगा…शायद वह तुम्हें छोड़ नहीं पाया। उसकी अतृप्त इच्छा को लेकर यह पक्षी तुम्हारा पीछा कर रहा है…क्यों, शायद।”
मार्था ने बहुत तरल होकर एक बार पक्षी को, फिर मुझे देखा। मैंने कहा, “ हाँ। नहीं लगता ऐसा कुछ।”
“अतृप्त इच्छाओं को लेकर उड़ सकना…पक्षी की तरह…सोचकर बहुत अच्छा लगता है न, ऐसा होता है ?” वह गिलास पकड़े-पकड़े उत्तर के लिए ताकने लगी।
“शायद… ” मैंने कहा।
“कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।’” लगा कि कहीं बहुत भीतर वह किसी हलचल में फँस गयी है। वह लगातार मुझे ताके जा रही थी। उसके खूबसूरत ओठ अभी तरल थे, हल्के-हल्के सूख आये थे। धीरे से उसने अपना हाथ मेरे बालों में फँसा लिया था और बोली थी, “’तुम्हारे बाल बहुत खूबसूरत हैं।”
मैंने उसका हाथ तो नहीं हटाया, पर उसे उसी की बात जरूर याद दिला दी, “तुम जैसे लोगों को इस तरह के फिकरों की जरूरत नहीं होनी चाहिए।”
“तुम गलत समझे।” वह बोली, “यह तो अपने मन के उदगार हैं। एक मन दूसरे मन से इन्हें उधार भी ले सकता है। लेकिन जो तुम बोले थे, रटा हुआ फिकरा था। एक हलका बेमानी फिकरा। बीयर और ले लें।” कहते हुए वह पहले की तरह ही फिर बीयर लेने चली गयी थी।
इस बार उसने जल्दी-जल्दी बीयर पी और गिलास खाली करके खाँचे में फँसा दिया। फिर उठकर खड़ी हो गयी, ”अब खाना खाएँ। मैं अपने पति को बुला लाऊँ। तुम उधर पहुँचो।”
“मेरे साथ एक दोस्त भी है।”
“ठीक है। उन्हें भी बुला लो।” कहते हुए वह बार काउण्टर को पार करती उधर चली गयी जहाँ सन-डेक पर जानेवाली सीढ़ी थी। लगता था समुद्र कुछ रफ हो गया है। मुझे इतनी बीयर नहीं पीनी चाहिए थी। लोहे की ठण्डी दीवार का सहारा लेता हुआ मैं उधर गया, जहाँ माइकेल बैठा था। पर वह वहीं सीट पर अपना छोटा वाला बैग दबाये, पैर मोड़े गहरी नींद में सो रहा था। मैंने उसे जगाया, “’माइकेल, चलो खाना खा लें… ”
नींद में ही उसने जवाब दिया, “मैंने खा लिया है।”
“कब! क्या खा लिया है?”
“आलू और पनीर, अच्छा था। तुम भी खा आओ।” वैसे ही लेटे-लेटे उसने कहा। वह नींद में था। माइकेल औपचारिकताओं में ज्यादा विश्वास नहीं करता इसलिए यह कोई टेढ़ी स्थिति नहीं थी। यह अन्दाज लगाकर कि मार्था को ऊपर से आने में अभी कुछ वक्त और लगेगा, मैं वहीं बैठ गया। जहाज अब भी काफी डगमगा रहा था। यों ज्यादातर इंग्लिश चैनल शान्त रहती है। शायद हवा तेज थी या समुद्र के रुख बदलने का वक्त था। छोटे से सफर के लिए निकले हुए लोग अब ज्यादातर ऊँघ रहे थे। या जहाज के झूले ने उन्हें उनींदा कर दिया था। सैलानी लोग ऊपर सन डेक पर थे। अपनी-अपनी कुर्सियाँ डाले हुए।
वक्त का अन्दाज करके मैं रेस्तराँ की ओर चल दिया। वहाँ भी कोई भीड़ नहीं थी। शायद ज्यादातर लोग अपना खाना साथ लाये थे। बीयर के साथ उन्होंने सैण्ड विचेज खाकर खाना खत्म कर दिया था।
एक मेज पर मार्था दिखाई दी। उसके पास बैठा हुआ एक लगभग बूढ़ा-सा आदमी था। पति के सिवा कौन हो सकता था। मैं जाकर तीसरी कुर्सी पर बैठ गया। मार्था का लगभग बूढ़ा पति जरूरत से ज्यादा कपड़े पहने हुए था। मुझे देखते ही उसने मुस्कराकर मेरा स्वागत किया और इससे पहले कि खाना खाये, वह इस तरह से बोला जैसे मुझे बरसों से जानता हो, “अब आप ही इसे समझाएँ। आप इसके प्रेमी हैं, आपकी बात यह मान जाएगी।”
“जी।” मैंने आश्चर्यचकित होकर, बल्कि अचम्भे में चीखकर कहा।
“हाँ, आप ही इसे समझाइए। मेरी बात यह नहीं मानती।” वह लगभग बूढ़ा व्यक्ति रूमाल निकालकर नाक साफ करने लगा था। मैंने कुछ समझा। यह खास अँग्रेजी आदत है। बात को बढ़ाने के लिए मैंने पूछा, “आप अँग्रेज हैं?”
“नहीं तो।” बूढ़ा बोला और गन्दा रूमाल उसने अँग्रेजों की तरह ही सहेजकर अपनी जेब में रख लिया। उसकी नाक का सिरा अधकच्ची बीफ-स्टीक में छलछलाते खून की तरह रिसकर लाल हो आया था।
मार्था हल्के से हँसी। उन दोनों ने एक-दूसरे को देखा। बूढ़ा कतई कातर या विगलित नहीं था। बल्कि उसकी आँखों में कहीं और से प्राप्त विश्वास की निश्चयात्मकता थी। एक अजीब से भोलेपन में मिली-जुली।
मछली की प्लेट मेरे सामने आ गयी थी। मार्था भी सोल ही ले रही थी। बूढ़े ने आलू, सब्जियाँ और पनीर लिया था। बात का सिर पकड़ते हुए बूढ़े ने फिर कहा, “आपने मेरी बात पर गौर नहीं किया।’!
पर बीच में मार्था बोल उठी, “तुम आराम से खाना खाओ।’”
बूढ़े ने काँटा-छुरी रोककर फिर उसी कहीं और से प्राप्त विश्वास की निश्चयात्मकता से उसे देखा। एक क्षण रुककर वह मुझसे बोला, “यह मानती ही नहीं। मैं कहता हूँ तुम जवान हो, सुन्दर हो, और वहाँ सैनिक शासन है… ”
“अपने प्यारे देश की। आप बताइए, यह वक्त वहाँ जाने का है। लोग ग्रीस छोड़-छोड़कर बाहर आ रहे हैं, और ये वहाँ जा रही है…है न गलत बात। सारा सामान बाँध लायी है। कहती है गेस्ट हाउस बेच दो। खैर, गेस्ट हाउस तो मैंने नहीं बेचा, लेकिन…” वह बूढ़ा अब बहुत घबराया हुआ लग रहा था। धीरे-धीरे सब बातें सामने आती गयीं। मार्था उस लगभग बूढ़े फोकस की तीसरी बीवी थी। कि अब वह वापस ग्रीस जाना चाहती थी। उसे अँग्रेज पसन्द नहीं आये थे। फोकस फलता-फूलता कारोबार छोड़कर लौटने को हिमाकत समझता था। वह चाहता था कोई मार्था को समझाए। असल में फोकस उसे यूगोसलाविया तक छोड़ने जा रहा था। उसके बाद फोकस की इच्छा के विरुद्ध जो कुछ होनेवाला था, उसका साक्षी वह नहीं बनता चाहता था।
“तुम किस बात के साक्षी नहीं बनना चाहते? मार्था ने करीब-करीब चिढ़कर बूढ़े से कहा था, ”क्या होगा मेरे साथ। फौजी मुझे खा तो नहीं जाएँगे?”
बूढ़े ने रहम से उसे देखा था। फिर वह अपना पनीर खाने में मशगूल हो गया था। वह आखिरी कतरा खा रहा था। मैं खाना खत्म कर चुका था। आखिर हम तीनों चुपचाप उठ आये। रेलिंग पकड़-पकड़कर बूढ़ा सनडेक पर चला गया। पीछे-पीछे मार्था और मैं भी। कुत्ते ऊपर ही बैठे हुए थे। कुछ देर हम यों ही इधर-उधर देखते रहे। बूढ़ा जेब से रोटी निकालकर कगार के पास चला गया था। वहीं से वह चिड़ियों के लिए टुकड़े फेंकता रहा। पर चिड़ियाँ वहाँ नहीं थीं। वह अकेला पक्षी भी न जाने कहाँ चला गया था। जहाज अब एक-सी गति से चला जा रहा था। आसमान में ठण्डा सूरज चमक रहा था और जहाज के पीछे दूर तक पानी की धूल-भरी चमकती सड़क उखड़ी हुई पड़ी हुई थी।
“चलो नीचे चलें।” मार्था ने आकर कहा।
हम दोनों नीचे आकर बैठ गये। एकाएक उसने पूछा, “क्यों, मैं गलती कर रही हूँ?”
“मैं कुछ भी समझ नहीं पाया हूँ। कैसे कुछ कह सकता हूँ।”
“मैं बताती हूँ। देखो मैं निहायत मामूली लड़की हूँ। सीधी-सी बात है, मैं अपने देश जाना चाहती हूँ। तुम्हें मालूम है वहाँ अकाल पड़ा हुआ है!” उसने आँखें फाड़कर देखा।
“अनाज का नहीं…बिचारों का। मेरे पति समझते हैं मैं सात बक्सों में सम्पदा भरकर लायी हूँ। उनमें सिर्फ किताबें हैं, पत्रिकाएँ हैं। मेरे देश में सैनिक शासन है। किताबें, अखबार नहीं निकलते…जो कुछ जमा कर पायी, वही सब ले जा रही हूँ। कुछ गलत कर रही हूँ? ज्यादा-से-ज्यादा क्या होगा…सीमा पर वे मुझे रोक लेंगे। रोके रहेंगे। और क्या…” वह उत्तेजित हो गयी थी।
“तुम्हारे पति को दूसरी चिन्ता सता रही है। तुम इतनी जवान हो… ” मैंने कुछ शैतानी से कहा।
“क्या मैं तभी तक जवान हूँ, जब तक बीवी हूँ। बीवी होने से पहले क्या मैं जवान नहीं थी। या बीवी न रहने के बाद जवान नहीं रह जाऊँगी। पहले किसीने चिन्ता नहीं की। बाद में कौन करेगा। छोड़ो, चलो कुछ पीएँगे।” मार्था ने कहा था और वह मुझे जबरदस्ती बाँह पकड़कर उठा लायी थी।
हम फिर बार काठउण्टर पर थे। अब मैं अपने को अजीब से भँवर-जाल में पा रहा था। खाने के बाद पी सकना मेरी सकत में नहीं। मैंने बीयर ली थी। मार्था ने व्हिस्की। वही खिड़की थी और वही झाँकता हुआ समुद्र।
“मैंने कहीं पढ़ा है किसी लेखक ने लिखा है कि…नाम याद नहीं आ रहा है…लिखा है अब हम सिर्फ इन्सान रह गये हैं। ग्रीक जापानी या फ्रेंच या ब्रिटिश बने रहना गलती है। क्यों है न?” वह अब शान्त होती जा रही थी।
कुछ देर तक मेजपोशनुमा खिड़की से बाहर देखने के बाद वह फिर बोली, “पक्षी भी अब नहीं हैं। समुद्र कितना सूना-सूना लग रहा है। नहीं ?”
“हाँ।” मैंने कहा। शायद ओस्टेण्ड आ रहा है।
“मैं पति को यहीं से वापस भेज दूँ?”
“मैं भला क्या कह सकता हूँ।” मैंने संकोच से कहा।
“देखो, तुम बेल्जियम होते हुए स्कैण्डेनिविया चले जाओगे। मैं जर्मनी, आस्ट्रेलिया, यूगोसलाबिया होती हुई ग्रीस। पर मुझे पता है कि तुम मिलते रहोगे।”
मुझे लगा कि वह फिर भावुक हो रही है। लेकिन ऐसा नहीं था। “मैं अभी आयी ।” कहकर वह चली गयी। लौटी तो पति साथ था। कुत्ते भी थे। वह अपने पति की बाँह में बाँह डाले हुए थी। वे दोनों वहीं आकर बैठ गये। व्हिस्की आ गयी थी और उसका पति बहुत निश्चिन्तता से पी रहा था। रह-रहकर वह पति को प्यार करने लगी थी।
जब तक ओस्टेण्ड आया वे पति-पत्नी-मार्था और फोकस–वहाँ बैठे पीते रहे। मैं माइकेल के पास जाने के लिए चलने लगा तो वह इतना ही बोली, “तुम्हें जल्दी न हो तो रुकना। जहाज से उतरकर रुकना।” कुछ ही मिनटों बाद जहाज किनारे लग गया था। मैं और माइकेल अपनी कार उतारकर नीचे ले आये थे। हम मार्था का इन्तजार कर रहे थे। कुछ देर बाद नशे में धुत, पति को साधे, कुत्तों की जंजीरों को पकड़े मार्था आयी और पति को हमें सधाकर बोली, “इनका बुकिंग करा दूँ। जरा सँभालना।”
और वह उस विण्डो पर पहुँच गयी थी जहाँ से वापस जानेवाले जहाज का रिजर्वेशन हो रहा था। जिससे हम आये थे, वही वापस जाने वाला था। टिकट लेकर वह आयी और पति को लिये हुए वापस जहाज में जाने लगी तो उस लगभग बूढ़े पति ने विरोध किया, “मैं नहीं जाऊँगा, तुम नहीं समझतीं…”
मार्था ने उसे ओठों से चूमकर बहुत प्यार से आगे सरकाया। फिर सहारा देकर ले जाने लगी। माइकेल कुत्ते पकड़े खड़ा रहा। जहाज में जाते-जाते भी उस लगभग बूढ़े पति का बड़बड़ाना सुनाई दे रहा था, “तुम जवान हो और वहाँ…”
पास कण्ट्रोल पर हमें देर लगी। बहुत सख्त चैकिंग थी। मार्था अपने कुत्ते लेकर ट्रेन की तरफ चली गयी थी। जहाज से उतरी ट्रेन के डिब्बे ट्रांस योरोपियन एक्सप्रेस में जुड़ गये थे। वह गाड़ी ग्रीस होती हुई तुर्की जा रही थी। पनीला सूरज काफी नीचे सरक आया था। धुन्ध गहरी हो रही थी। जेटी पर कुछ पक्षी सिकुड़े से बैठे थे। दूर जहाँ ट्रेन खड़ी थी, शीशे के पास तीन कुत्ते दिखाई दे रहे थे। उन्हीं के बाद धुँधली खिड़की में मार्था-सी लगती थी। बूढ़ा कुछ भी साफ नहीं था। जहाज में लेट हुआ होगा। शायद उसी तरह बड़बड़ाता हुआ। हम बेल्जियम जा रहे थे और मार्था ग्रीस की ओर।