General Knowledge: विभिन्न राज्यों के बोर्डों द्वारा 10वीं और 12वीं कक्षा के परिणाम घोषित किए जा रहे हैं। जैसा कि आपको ज्ञात होगा शिक्षा व्यवस्था के अनुसार, विद्यार्थी को कम से कम 33% अंक प्राप्त करने पर ही पास घोषित किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि आखिर परीक्षा में पास होने के लिए विद्यार्थियों को 33% अंक ही क्यों लाने होते हैं, इससे ज्यादा या फिर कम क्यों नहीं? आखिर इसके पीछे की वजह क्या है, इस पर आज हम इस खबर में आपको यह जानकारी देंगे।
कहां-कहां पासिंग मार्क्स 33%?
चलिए इसे थोड़ा और संक्षेप में समझते हैं, दरअसल उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और सीबीएसई में 10वीं और 12वीं कक्षा के छात्रों को पास होने के लिए 33% अंक अवश्य लाने होते हैं। हालांकि केरल बोर्ड की बात करें तो इसमें इस धारा की दर कम है, यहां स्टूडेंट्स को कम से कम 30% अंक ही चाहिए होते हैं ताकि वे परीक्षा में पास हो सकें। इसके अतिरिक्त, भारत के सभी राज्यों के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी पासिंग मार्क्स की न्यूनतम धारा 33% ही है। तो इससे सबसे बड़ा सवाल उठता है आखिर पास होने के लिए 33 परसेंट ही क्यों जरूरी हैं? तो चलिए समझते हैं।
जानिए क्या है इसका कारण?
दरअसल इस प्रणाली की शुरुआत 1858 में हुई थी जब अंग्रेज साम्राज्य सत्ता में था। उस समय भारत में पहली मैट्रिक परीक्षा का आयोजन हुआ था, जिसमें उत्तीर्ण होने के लिए न्यूनतम 65% अंक आवश्यक थे। लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने बाद में भारतीय छात्रों के लिए न्यूनतम पासिंग मार्क्स को 33% में संशोधित किया। इससे स्पष्ट होता है कि उनका मानना था कि भारतीय छात्रों की शिक्षा स्तर में ब्रिटिश छात्रों के तुलनात्मक कमी है। इस परिप्रेक्ष्य में, आज भी हमें उत्तीर्ण होने के लिए 33% अंक प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, जो कि ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली का परिणाम है।
दूसरे देशों का हाल जानें?
जानकारी के मुताबिक अन्य देशों में पास होने के लिए ग्रेडिंग प्रणालियों में विभिन्न प्रतिशत अंकों का उपयोग होता है। उदाहरण के तौर पर, जर्मनी में जीपीए प्रणाली 1 से 6 या 5 प्वाइंट तक का उपयोग करती है, जहां 1 या 1.5 प्रतिशत के अंक “बहुत अच्छा” के रूप में माने जाते हैं, जबकि 4.1 से 5 प्रतिशत के अंक “पर्याप्त नहीं” के रूप में गणना की जाती है। चीन में, स्कूल और कॉलेज में 5 या 4 स्केल ग्रेडिंग प्रणाली होती है, जहां अंकों के आधार पर ग्रेड दिया जाता है। इस प्रणाली में, 0 से 59 फीसदी के बीच अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को एफ ग्रेड दिया जाता है, जबकि चार-स्तरीय प्रणाली में ग्रेड डी का मतलब होता है कि छात्रों ने पास नहीं किया है।