होली विशेष: परम्पराओं के देश भारत में होली का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है| होली भारत के सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय उत्सवों में से एक है, जिसमे आनंद और रोमांच का भरपूर नजारा देखने को मिलता है, पारंपरिक रूप से, होली बुराई पर अच्छाई की जीत दर्शाने के लिए मनाई जाती है। इसे होलिका की कथा सहित, कई कथाओं से भी जोड़ा जाता है। लेकिन भारत में कई जगह होली मनाने की अलग ही तरह की परम्पराएं हैं, जो सदियों से जीवित हैं और आज भी निभाई जाती हैं| आज के आधुनिक समय में कुछ ऐसी परम्पराएं भी लोग निभा रहे हैं, जिन्हे देखने के लिए भारी हुजूम उमड़ता है| वहीं दिल दहला देने वाले इस नज़ारे को देखकर हर कोई दंग रह जाता है|
उत्तरप्रदेश के मथुरा में अनोखी होली का नजारा देखने को मिलता है, ब्रज की होलियों में बरसाना, नन्दगांव की लठामार होलियां विश्वर में चर्चित हैं और हर कोई यहां होली खेलना चाहता है| लेकिन मथुरा के पास छाता तहसील में स्थित गांव जटवारी एवं फालैन गांव की होली दिल दहला देने वाली होती है, जिसे देखकर दर्शक भी सिहर उठते हैं | यहां होली की आग से होकर अलग-अलग समय में दो पंडे निकलते हैं| फालेन गांव और जटवारी गांव में होली की आग से पंडे के निकलने की परंपरा डेढ़ शताब्दी से अधिक पुरानी है| जब पंडा आग की ऊंची उंच लपटों से होकर निकलते हैं तो आग भी उनका कुछ नहीं कर पाती| यह दृश्य देखकर हर कोई हैरान रह जाता है| कहा जाता है भारत की धरती चमत्कारिक है, यहां कदम कदम पर चमत्कार देखने को मिलते हैं| उन्ही में से यह एक परंपरा है, जो यहाँ के लोग सदियों से निभाते आ रहे हैं| इस बार होलिका के धधकते अंगारों पर चलकर पंडा बाबूलाल निकलेगा। फालैन गांव के 50 वर्षीय बाबूलाल पंडा होलिका दहन से पूर्व दोपहर दो बजे स्नान आदि से निवृत्त होकर होलिका का पूजन करने के बाद घी का दीपक जलाकर प्रहलाद मंदिर पर जप पर बैठ जाएंगे। मंदिर के बाहर पास के पांचों गावों के श्रद्धालु धमार गायन कर पंडा का उत्साहवर्धन करेंगे। बाबूलाल पंडा कुछ समय के अंतराल पर दीपक की जलती लौ पर हथेली का स्पर्श करते रहेंगे। इसके बाद भक्त प्रहलाद की माला से जप करेंगे।
वर्षो पुरानी है परंपरा
यहां होली की आग से पंडे के निकलने की परंपरा डेढ़ शताब्दी से अधिक पुरानी है| इन गांवों में प्रहलाद मंदिर है जहां पर पंडे आराधना करते हैं और होली की आग से निकलने से पहले पास के प्रहलाद कुंड में स्नान करते हैं| इन दोनों गांवों के पंडे माला लेने के बाद मंदिर में हर समय पूजा आराधना करते हैं और मंदिर में ही फर्श पर सोते हैं| होलाष्टक लगने के बाद पंडे अन्न का परित्याग कर केवल दूध और फल ही ग्रहण करते हैं|
लोग मानते हैं चमत्कार
दोनों ही गांवों में होली मनाने का अलग अलग तरीका है। दोनों ही गांवों की होली की आग से पंडे के निकलने की परंपरा डेढ़ शताब्दी से अधिक पुरानी है। दोनों ही गांवों में वसंत पंचमी को पंचायत कर यह निर्धारण किया जाता है कि इस बार होली से होकर कौन पंडा निकलेगा। जो युवक स्वत: निकलने के लिए कहता है वह मंदिर में रखी माला को उठा लेता है। दोनों ही गावों में प्रहलाद का मंदिर हैं जहां पर पंडे आराधना करते है तथा होली की आग से निकलने के पहले पास के प्रहलाद कुंड में स्नान करने के बाद ही होली की आग से निकलते हैं। होली की शाम से पंडा प्रहलाद मंदिर के सामने हवन करने लगता है तथा पास रखे दीपक की लौ के ऊपर अपना हाथ रखकर उसकी गर्मी का अंदाजा करता है। जब उसे यह लौ शीतल महसूस होने लगती है तो उसे बहुत अधिक ठंड लगने लगती है। इसी समय वह होली में आग लगाने का निर्देश देकर स्वयं पास के प्रहलाद कुंड में स्नान के लिए जाता है तथा उसकी बहन उसके होली तक आने के मार्ग पर करूए से पानी डालती है और फिर पलक झपकते ही यह पंडा होली की गगनचुम्बी लपटों से होकर निकल जाता है। सामान्यतया होली की लपटों से निकलने वाले पण्डे अविवाहित ही होते हैं। इस दौरान गांव के लोग लाठी लेकर पण्डे को आग से निकलने के पहले और बाद में घेर लेते हैं। फालेन की ह��ली में आग लगने का समय आखिरी वक्त पर पंडा ही निर्धारित करता है। यहां के गांव की होली किसी दैवीय चमत्कार से कम नही है।
कठिन साधना करता है पंडा
इस रस्म के लिए पण्डा एक माह तक ब्रह्मचारी की तरह जीवन व्यतीत कर कठिन साधना करता है। वह अन्न-जल त्याग कर केवल फलाहार कर जीवित रहता है। इस बार यह जिम्मेदारी इंद्रजीत पण्डा के पुत्र बाबूलाल पण्डा ने ली है। जब पण्डा इस गांव की परंपरा के लिए यह त्याग करता है तो गांव के लोग भी उसकी पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरा करने के लिए अपनी-अपनी उपज का एक हिस्सा उसके परिवार को देते हैं।’