जानिए, क्यों तोड़ा जा रहा है ब्रिटिश काल में बने इस पुराने पुल को…

Amit Sengar
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Khargone News : रेलवे ने मोरटक्का (खेडीघाट) मे नर्मदा नदी पर बने ऐतिहासिक रेलवे पुल के लोहे स्ट्रक्चर तोडने का काम शुरू हो गया है। यह पुल महू-ओंकारेश्वर रोड छोटी लाइन पर बना है। और इस लाइन का सबसे लंबा पुल है। अब यहां इंदौर-महू-सानवद-खंडवा ब्रॉडगेज प्रोजेक्ट के तहत नया ब्रिज बनाया जाएगा। माना जा रहा है। कि नया ब्रिज बनने मे लगभग 2 साल लगेंगे। करीब 9 महीने पहले से नए ब्रिज के लिए निर्माण प्रकिया प्रारंभ हो गयी थी। लेकिन काम मुहूर्त अब आ चुका है। ब्रिज की लंबाई 700 मीटर से ज्यादा बताई जा रही है। 1875 मे खंडवा से चोरल के बीच छोटी लाइन बिछाई गयी थी। ब्रिज का आधा हिस्सा खंडवा और आधा हिस्सा खरगोन जिले की सीमा पर है। 1 फरवरी से पश्चिम रेलवे ने ओंकारेश्वर रोड स्टेशन का रेल रूट बंद कर दिया। था। तभी से लोग नए ब्रिज का काम शुरू होने का इंतजार कर रहे थे। नए ब्रिज की लागत लगभग 86 करोड रूपए आंकी गई है। और यह 13 पिलर पर टिका होगा। महू-सनावद छोटी लाइन को बडी लाइन मे बदलने का काम सबसे पहले सनावद से बलवाडा के बीच होना है, क्योकि इस हिस्से मे रेल लाइन के अलाइनमेंट मे कोई बदलाव नही है। बलवाडा से महू के बीच डायवर्टेड रूट से बडी लाइन बिछाई जाएगी। जिसमें कई सुरंगे भी बनेगी। यह काम सबसे आखिर मे होगा।

पटरियां और जालिया निकालना शुरू

पहले चरण मे ठेकेदार कंपनी ने गैस कटर से मदद से ब्रिज की पटरियां और आसपास लगी जालियां निकालने का काम प्रारंभ कर दिया है। पहले इस पुल के स्ट्रक्चर को तोडा जाएगा। फिर पिलर को तोडा जाएगा। उसके बाद नए ब्रिज के लिए फाउंडेशन और नए पिलर बनाने का काम प्रारंभ होगा। नेशनल हाईवेज अथॉरिटी भी नर्मदा पर सिक्स लेन पुल बना रही है और रोड पुल बनानें वाली कंपनी को ही रेल पुल बनाने का भी ठेका मिला है।

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जानिए, क्यों तोड़ा जा रहा है ब्रिटिश काल में बने इस पुराने पुल को...

खंडवा से 36.5 मील दूर नर्मदा नदी का दक्षिणी किनारा शुरू होता है। यहां एक विशाल पुल का निर्माण हुआ था जिसका प्रतिष्ठापूर्ण नाम ‘होलकर नर्मदा ब्रिज’ दिया गया था यह पुल 200 फीट की दूरी पर 14 ढलवां लोहे (रॉट आयरन) के गर्डरों से वॉरेन पैटर्न पर बनाया गया था। इस तरह के सिस्टम में त्रिकोण के आकार के जाल सपोर्ट के लिए लगाए गए। पुल के ऊपरी हिस्से में रेल की पटरियां तथा निचले हिस्से में बैलगाड़ियों के लिए सड़क बनाई । यह इतनी चौड़ी थी कि जिसमें एक समय में एक दिशा से बैलगाड़ी की एक ही पंक्ति जा सकती है। नदी के तल से 100 फीट ऊपर रेलवे लाइन

यहां बाढ़ के दिनों में जल का स्तर 66 फीट तक ऊपर आ जाता है। बाढ़ के वक्त पानी की गति 13 मील प्रति घंटा होती है। वर्ष 1875 में 45 फीट ऊंची बाढ़ आई थी, जिसकी वजह से मिस्टर शीन को खंभों की ऊंचाई 5 फीट और बढ़ाना पड़ी थी। इस ऊंचाई पर यदि 66 फीट ऊंची बाढ़ भी आ जाती तो भी पुल को पानी स्पर्श नहीं कर पाता। पुल एक्जीक्युटिव इंजीनियर मिस्टर जेम्स रामसे ने वर्ष 1872 में बनाना शुरू किया था। साल दिसंबर में सेंट्रल इंडिया के गवर्नर जनरल और वॉइसराय हिज एक्सीलेंसी लॉर्ड नॉर्थब्रुक ने सेंट्रल इंडिया के प्रमुख राजाओं का बड़वाह में एक ग्रांड दरबार आयोजित हुआ था। उसी समय व मौके पर उन्होंने पुल की आधारशिला रखी थी।

फरवरी 1873 में एक्जीक्युटिव इंजीनियर रामसे का ट्रांसफर हो गया और उनके स्थान पर मिस्टर एलेक्जेंडर आ गए। मई 1875 में मिस्टर एलेक्जेंडर 2 को छोड़कर सभी स्तंभों के फाउंडेशन बनाने में सफल हुए थे। 3 स्तंभों को वे पूरी ऊंचाई तक बना चुके थे। अक्टूबर 1874 में मिस्टर एलेक्जेंडर जिम्मेदारी से मुक्त हो गए और उनके स्थान पर मिस्टर आईजेट एक्जीक्युटिव इंजीनियर नियुक्त किए गए। इन्होंने वर्ष 1875 मई तक पानी में बने 6 स्तंभों का सुपर स्ट्रक्चर पूरा कर लिया। वे गर्डर उठाने की तैयारी कर चुके थे, साथ ही शेष 4 स्तंभों को भी पूरा कर रहे थे। जून 1876 से पहले तक सभी स्तंभ इतनी ऊंचाई तक उठ चुके थे कि नदी में आने वाली बाढ़ का सामना कर सकें। नदी के तट की पूरी चौड़ाई में सभी स्तंभों पर गर्डर अपने नियत स्थान पर लगाई जा चुकी थी।

अक्टूबर 1876 में महाराजा होलकर एवं सर हैनरी डेली (एजेंट टू गवर्नर जनरल) ने औपचारिक रूप से इस पुल को जनता के लिए खोल दिया। महाराजा होलकर का राजरथ (बग्घी) तोपों की सलामी के बीच पुल पार कर दूसरी ओर पहुंचा। उस पार पहुंचने के बाद धुएं के संकेत से इसकी सूचना दूसरे किनारे पर दी गई। इसके बाद महाराजा होलकर ने पुल के लोहे के गर्डर में चांदी का आखिरी रिबेट ठोककर इस पुल की संपूर्णता पर अपनी मोहर लगा दी। यह चांदी का रिबेट आज भी इस पुल पर लगा बताया जाता है

नर्मदा ब्रिज से रेलवे लाइन 0.57 डिग्री की चढ़ाई से होते हुए 12 मील दूर पहाड़ी की तलहटी में बलवाड़ा तक जा पहुंचती है। यहां आकर सेकंड डिवीजन समाप्त होता है। रेलवे लाइन के इस हिस्से में बहुत बड़े पुल नहीं बनाना पड़े थे। केवल 40-40 फीट के तीन पुल नालों और तेज बहाव के हिस्सों में बनाए गए थे। 4 छोटे पुल 20-20 फीट की चौड़ाई के बनाए गए थे। इसके अलावा 40 छोटे पुल अथवा पुलियाएं बनाई गई थीं।

बलवाड़ा से रेलवे लाइन लगातार ऊंचाई की ओर चढ़ती जाती है। इस इलाके में घाटी का बहुत सुंदर परिदृश्य दिखाई देता था। 51वें मील तक पहुंचते हुए रेलवे लाइन चट्टानों को काटकर बिछाई गई थी। यहां रेलवे लाइन सड़क को पार कर आगे बढ़ जाती थी। यहां से चढ़ाई इतनी कठिन हो जाती थी कि लगता है कि रेल इंजनों को पागलों की तरह काम करते हुए पूरी ट्रेन को खींचना पड़ता था। यहां कोई बोगदा दिखाई नहीं देता है, लेकिन अचानक रेलवे लाइन बाईं ओर मुड़ती है। 2 मील आगे बढ़ने पर यात्रियों को दाहिनी ओर एक चौथाई मील की दूरी पर अच्छी-खासी ऊंचाई पर दूसरी रेल लाइन दिखाई देती थी

ऊपर की ओर बढ़ते हुए यात्रियों को पुन: एक चौथाई मील की दूरी पर दाहिनी ओर एक रेलवे लाइन काफी नीचे की ओर दिखाई देती थी यह इस बात का प्रमाण भी है कि रेलवे लाइन घाटी के एक ओर से पार करते हुए दूसरी ओर निकल आई है। इस प्रक्रिया में रेलवे लाइन एक पूरे सेमी सर्कल को बनाते हुए आगे बढ़ जाती थी इस तरह पहाड़ी की ऊंचाई पर रेल को पटरियों पर फिसलने से भी बचाया जाता था खंडवा से 55वें मील तक रेलवे लाइन पहाड़ी के इर्द-गिर्द चढ़ती-उतरती हुई चट्टानों को गहराई से काटकर बनाए गए बोगदे को पार करती है। यहां खुले में आकर इंजन को जैसे सांस मिलती है। बलवाड़ा घाट पारकरके रेलवे लाइन धीरे-धीरे चोरल चौकी की ओर उतरने लगती थी

चोरल चौकी एक छोटी-सी रिहायशी जगह है, जो मूल रूप से बैलगाड़ी के अड्‌डे के रूप में उभरकर सामने आई थी। जनवरी 1875 में रेलवे लाइन खुलने के बाद यहां बसाहट बढ़ने लगी। शुरुआत में अस्थायी ट्रामवे से नर्मदा घाटी में यातायात चालू किया गया था। 8 महीने ट्रामवे चलती थी, शेष बारिश के 2 महीनों में नर्मदा के दोनों किनारों तक ट्रेन चलती थी और सामान तथा यात्रियों को उतारकर लौट जाती थी। बाद में सामान और यात्री नौकाओं से एक तट से दूसरे तक नर्मदा नदी पार करते थे। इस लिहाज से चोरल एक टर्मिनस बन गया था, हर दिन घास की नई कुटियाएं बनकर खड़ी हो रही थीं और कुछ ही समय में अच्छी-खासी बस्ती बस गई थी। ऐतिहासिक रेलवे पुल के तोड़ने पर इतिहासविदों ओर रेलवे संघर्ष समिति में रोष है।

खरगोन से बाबूलाल सारंग की रिपोर्ट


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