राष्ट्र निर्माण की बुनियाद हैं मजदूर – प्रवीण कक्कड़

भोपाल, डेस्क रिपोर्ट। दुनिया का बहुत लंबा इतिहास देवताओं, राजाओं, सेनापतियों और सामंतों के बारे में ज्यादा से ज्यादा वर्णन करते हुए लिखा गया है। मानव सभ्यता के 5000 वर्ष के इतिहास को उठाकर देखें तो शुरू के 4700 साल तो ऐसे भी थे जिनमें मजदूर के लिए कहीं कोई उल्लेखनीय स्थान था ही नहीं। रोमन सभ्यता में अगर वे दास थे तो अरब और भारत जैसे देशों में उनकी स्थिति सेवक से अधिक की नहीं थी। कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि मजदूरों के नाम पर भी कोई दिवस मनाया जा सकता है या उनके सुख-दुख और अधिकारों के बारे में चर्चा की जा सकती है।

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राजशाही के पतन और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की पूरी बात और संवाद के रूप में परिवर्तित होने के बाद ही दुनिया में मजदूरों के ऊपर होने वाले शोषण और उनके अधिकारों की चर्चा विधिवत शुरू हुई। अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस मनाने की शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है, जब अमेरिका की मज़दूर यूनियनों नें काम का समय 8 घंटे से ज़्यादा न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी। मई दिवस की दूसरी ताकत रूस में कोई बोल्शेविक क्रांति के बाद मिली जो कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों पर मजदूरों की सरकार मानी गई। भारत में सबसे पहले यह विचार दिया था कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ। इस तरह देखें तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही प्रणालियों में मजदूर के महत्व को पहचाना गया। भारत में मई दिवस सबसे पहले चेन्नई में 1 मई 1923 को मनाना शुरू किया गया था। उस समय इस को मद्रास दिवस के तौर पर प्रामाणित कर लिया गया था। इस की शुरूआत भारतीय मज़दूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने शुरू की थी। भारत में मद्रास के हाईकोर्ट सामने एक बड़ा प्रदर्शन किया और एक संकल्प के पास करके यह सहमति बनाई गई कि इस दिवस को भारत में भी कामगार दिवस के तौर पर मनाया जाये और इस दिन छुट्टी का ऐलान किया जाये। भारत समेत लगभग 80 मुल्कों में यह दिवस पहली मई को मनाया जाता है। इसके पीछे तर्क है कि यह दिन अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस के तौर पर प्रामाणित हो चुका है।


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Harpreet Kaur